साहित्य लहर
बचपन के रंग
प्रभा इस्सर, देहरादून
मैंने भी सोचा था
मैंने भी चाहा था
बचपन के रंगों को
जवानी के रंगों में रचना चाहा था
माता, पिता, की बेब्सी को जवानी में दूर करना चाहा था
पल, पल, ख्वाहिशों को तिल,तिल, कर मरते देखा था
बेरंग से बचपन को जवानी में रंगना चाहा था
मैंने भी सोचा था
मैंने भी चाहा था
हजारों रंग छूट गए बचपन में
रंगीन गुब्बारों को बस दूसरों के हाथों में थामें देखा था
सच में कितने बेरंग थे
मेरे बचपन के रंग
दो वक्त रोटी की जद्दोजहद में
मां ,बाप, को हालातों से लड़ते देखा था
सच में माता, पिता, ने तिनका, तिनका, जोड़ कर थोड़ा सा काबिल मुझे बनाया था
अब ना उड़ने दूंगा मैं ये रंग जीवन में , हर रंग पूरे कर जाऊंगा जीवन के,
अपने माता-पिता के हर रंगों को उमंगों को पूरा कर जाऊंगा
सच में अब तो हर रंग पूरे परिवार के जीवन में भर जाऊंगा