साक्षात्कार : राजीव कुमार झा के साथ अशोक धीवर “जलछत्री” की बातचीत
साक्षात्कार : राजीव कुमार झा के साथ अशोक धीवर “जलछत्री” की बातचीत… कवि और कलाकार अशोक धीवर “जलछत्री” छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में स्थित तुलसी ( तिलदा नेवरा ) के निवासी हैं। इन्होंने दहेज प्रथा और समाज में कन्याओं की दशा के अलावा अन्य सामाजिक बुराइयों के बारे में पुस्तक लेखन और संपादन का काम किया है। मूर्तिकला में भी इनकी रुचि है। यहां प्रस्तुत है , राजीव कुमार झा के साथ इनकी बातचीत!
प्रश्न: आप अपने घर परिवार और शिक्षा दीक्षा के बारे में बताएं?
उत्तर: मेरा बचपन बहुत ही गरीबी में बिता। मेरे माता-पिता ने अपने नि:संतान चाचा- चाची के मांगने पर मुझे दान दे दिए थे। अर्थात् उन लोगों ने गोद लेकर मेरा परवरिश किया। तब से वे लोग मेरे माता-पिता और मैं उनका दत्तक पुत्र बना। इसलिए बचपन से ही मैंने ठान लिया था कि, जिसने अपने कलेजे के टुकड़े का दान कर दिया। उनका भी मान बढ़ाना है, सेवा करना है तथा जिन्होंने अपने पेट का कौर बचाकर मेरा पेट भरा, उनका भी नाम तथा मान बढ़ाना है। सेवा करना है। गरीबी के कारण दसवीं तक पढ़ पाया था। व्यावसायिक पाठ्यक्रम के तहत बारहवीं उत्तीर्ण किया।
उसी समय मैंने सोच लिया था कि आगे बढ़ने के लिए कम पढ़ाई को बाधक बनने नहीं दूंगा और जो काम उच्च शिक्षा प्राप्त लोग कर सकते हैं, मैं भी करके रहूंगा। मैं आज जो कुछ भी हूं उसी सोच का नतीजा है। माता-पिता सूर्योदय से पूर्व काम पर चले जाते थे। अकेला बच्चा था इसलिए घर का अधिकांश काम झाड़ू लगाना, पानी भरना, खाना बनाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना आदि मैं ही किया करता था। सूर्योदय के पूर्व जागकर पेपर बांटना, फिर आकर वह सारा काम करके, तीन कि.मी. पैदल चलकर स्कूल जाना, फिर शाम को एक पुस्तक शाँप का पुस्तक घर पहुंच बेचता था।
प्रश्न: आप छत्तीसगढ़ के हैं। यहां गीत संगीत नृत्य और अन्य कलाओं की जो समृद्ध परंपरा है, उससे अवगत कराएं।
उत्तर: यूं तो लोक कलाओं एवं लोकनृत्यों का भंडार है छत्तीसगढ़ में। कर्मा, ददरिया, पंथी, सुवा, पंडवानी, भरथरी, चंदैनी आदि यहां की विशेष लोक कलाएं हैं। वहीं पूरे देश भर में एकमात्र छत्तीसगढ़ में ही छेरछेरा का त्यौहार मनाया जाता है। पौष पूर्णिमा के दिन सुबह से ही बच्चे झोला लेकर गांव के प्रत्येक घरों में जाते हैं और कहते हैं “छेरछेरा, माई कोठी के धान ला हेरिक हेरा” अर्थात् यह इतना वृहद संदेश छुपाए हुए लोक त्योहार हैं। जिसमें दान देने की प्रवृत्ति को उजागर करता है। किसान लोग अपनी फसल काटकर घरों में संग्रहित कर लेते हैं।
तब उस फसल में सबका अधिकार है, ऐसा सोचकर इस दिन सभी आगंतुकों को सामर्थ्यानुसार दान देते हैं। दशहरा के बाद एवं लक्ष्मी पूजा के पहले महिलाएं तथा छोटी-छोटी बालिकाएं सुआ गीत गाकर आपस में गोल घेरे बनाकर नाचते हैं। जो छत्तीसगढ़ में भाईचारे और आपसी सहयोग की भावना को प्रदर्शित करते हैं। वहीं लक्ष्मी पूजा के दिन बच्चे आटे से दीपक बनाकर गांव के सभी घरों में व मंदिरों में दीपदान करते हैं। फिर घर वाले प्रसाद, पैसे तथा मिठाई वगैरह देकर बच्चों की विदाई करते हैं। यह सब छत्तीसगढ़ के इकलौते लोक त्योहार हैं। जिसको बच्चे आपस में मिलजुल कर आनंदपूर्वक मनाते हैं।
प्रश्न: आप साहित्यकार हैं । कई पुस्तकों का आपने संपादन किया है। इन सबके बारे में बताएं। जानकर बहुत खुशी होगी।
उत्तर: अभी तक मैंने छः संग्रहों का संपादन, एक पुस्तक का सह संपादन और एक पुस्तक अपनी एकल संग्रह का प्रकाशन किया है। मैं एकल संग्रह से ज्यादा महत्व साझा संग्रह को देता हूं। क्योंकि 25-50 पुस्तक छपवाकर लोग स्वप्रशंसा करते रहते हैं। नामी और बड़े साहित्यकार या नेता को भेंट करके फोटो शेयर करते हैं। जो कभी उसे पढ़ते भी नहीं। इसलिए मैंने साझा संग्रह को पहले स्थान दिया। देश भर के साहित्यकारों को जानने समझने का मौका मिला। कुछ लोग रचना देने के बदले पैसे की मांग किए। कुछ लोग 3-4 सौ रुपए नहीं देने के लिए कई तरह की बहाने करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि, फ्री में छापना है तो छापो। वहीं अधिकांश लोगों से घरेलू रिश्तेदारों की तरह सम्बन्ध बन गया है, तो कुछ लोग मुझे विशेष व्यक्तित्व के धनी मानने लगे हैं।
कुछ लोग मुझे गुरु के रूप में मानते हैं,तो कुछ लोगों को मुझ पर इतना विश्वास है कि मेरी हर संग्रह में अपनी रचना देने का वायदा किया हुआ है। कुल मिलाकर मेरे सभी सहयोगी रचनाकारों को अपने परिवार जन की भांति मानता हूं और वे लोग भी मेरे प्रति इज्जत की भाव रखते हैं। राष्ट्रीय साझा संग्रह निकालना बहुत ही दुष्कर कार्य है। दिन रात इसी के लिए समय देना पड़ता है । पागल की तरह मोबाइल और डायरी पर नजर गड़ाए रखना पड़ता है। किसने कब राशि और रचना जमा किया, किसने बिना राशि के रचना भेजे हैं। किसको क्या कहना है। फिर संपादन का बहुत कसमकस भरा कठिन कार्य करते समय कई दिनों तक एक कमरे में अकेला बंद रहकर करना पड़ता है। किंतु इसमें भी मुझे आनंद आता है। क्योंकि सीखने को मिलता है। सबकी रचनाओं को बारीकी से पढ़ने को मिलता है। रचनाकारों को जानने का मौका मिलता है।
प्रश्न: मिट्टी की प्रतिमाओं को बनाना आपने कब और कैसे सीखा ?
उत्तर: वैसे तो पेंटिंग एवं मूर्तिकला गॉड गिफ्ट है मेरे लिए। मेरे माता-पिता खेतों में काम करने जाया करते थे। साथ में मुझे भी ले जाते थे। लेकिन जैसे ही सूर्योदय के बाद धूप तेज लगने लगता, मैं घर चलने की जिद किया करता था। वे लोग नहीं जाते, तो मैं गुस्से में आकर सुराही में भरा हुआ पीने का पानी को जमीन पर उंडे़ल देता था। जिससे मिट्टी भीग जाता था। मैं गुस्से के कारण इस मिट्टी को आटे की तरह गूंथने लगता। फिर हाथ में लगे हुए मिट्टी को साफ करने के लिए हाथ को मलने लगता। जिससे सांप की तरह लंबी आकृति बन जाती थी। कभी गोल-गोल बाँटी बना लेता, तो कभी इस बाँटी को दोनों हथेलियों से दबाकर चक्के जैसे बना देता। फिर कार या ट्रैक्टर या कोई जानवर की आकृति बना लेता और खेलने लगता। ऐसा करते-करते देवी- देवताओं की मूर्ति बना लेता था। जो आगे चलकर मेरी जीविकोपार्जन का साधन बन गया।
प्रश्न: छत्तीसगढ़ में कब और किन अवसरों पर मिट्टी की प्रतिमाओं का पूजन होता है।
उत्तर: श्री गणेश जी की पूजा भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को की जाती है। हमारे छत्तीसगढ़ में चौक चौराहे सहित घर-घर में उनकी मूर्ति स्थापित कर पूजन करते हैं। प्रतिवर्ष 17 सितंबर को देवशिल्पी विश्वकर्मा जी की मूर्ति स्थापित की जाती है। तत्पश्चात् क्वाँर शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रि पर्व में मां दुर्गा जी की मूर्ति स्थापना की जाती है। देवी मां के भक्तों द्वारा व्रत-उपवास रखकर विशेष रूप से पूजा की जाती है। जिसके कारण नौ दिन तक त्योहार जैसा माहौल रहता है। फिर दीपावली के समय धनतेरस तथा लक्ष्मी पूजा के दिन मां लक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित कर पांच या तीन दिवसीय पूजा की जाती है। अभी-अभी रामनवमी के समय श्री राम जी की मूर्ति बनवाकर शोभायात्रा निकालने का प्रचलन बढ़ रहा है। इस प्रकार हम मूर्तिकारों को बारहों महीने स्वरोजगार प्राप्त हो जाते हैं।
प्रश्न: अपनी अन्य अभिरुचियों के बारे में बताइए?
उत्तर: वैसे तो मेरी रुचि बहुत से क्षेत्रों में कार्य करने का है। लेखन से लेकर अभिनय, आध्यात्म, प्रवचन, तंत्र-मंत्र,आयुर्वेद तथा सामाजिक क्षेत्रों में अभिरुचियाँ है। मैं प्रभु कृपा से बहुमुखी प्रतिभा का धनी हूं। अपने जीवन काल में बहुत सा काम कर चुका हूं। जैसे- पेंटिंग, मूर्तिकारी, पुट्टी एवं मकान पेंटिंग, प्रिंटिंग प्रेस, राजमिस्त्री, रेडियो-टी.वी.मैकेनिक, घरेलू इलेक्ट्रिक फिटिंग, फोटो-फ्रेमिंग, टाइल्स फिटिंग, नल फिटिंग (प्लंबर), वेल्डिंग, कपड़ा सिलाई, साइकिल रिपेयर, बढ़ई आदि का काम कर लेता हूं। कुछ परेशानी होती है, तभी बाहर के इन कलाकारों को बुलाते हैं अन्यथा सारा काम स्वयं कर लेता हूं।
प्रश्न: लेखक और कलाकार के रूप में समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
उत्तर: हर इंसान को हर समय कुछ ना कुछ करते रहना चाहिए। समय बहुत कीमती है। उसे व्यर्थ न जाने दें। आराम को हराम समझें। आलस्य एवं प्रमाद में अवसर को न खोवें। सब कुछ कर गुजरने का गुण सब के अंदर विद्यमान है। उसे जागृत करने का प्रयास करना चाहिए। सृष्टिकर्ता ने हम सबको एक जैसी शक्ति प्रदान की है। जो व्यक्ति बहुत आगे बढ़े हुए हैं, वैसे ही आप भी बढ़ सकते हैं। वे लोग जैसे किए हैं, वैसे ही आप भी कर सकते हैं।
प्रयत्न करने से समय आने पर सब कुछ संभव हो जाते हैं। इस संसार में मुश्किल भले हैं, पर असंभव कुछ भी नहीं है। अपनी योग्यता को उन्नत और उजागर करते रहें। समाज में प्रेम, सौहार्द्र तथा आपसी सामंजस्य को बढ़ाएं। मार-काट, हिंसा, ईर्ष्या-द्वेष, लोभ-क्रोध, लड़ाई-झगड़ा, नशाखोरी, सहित अवैधानिक कार्यों से बचें। सादगी पूर्ण जीवन बिताएं। अपनी आत्म शक्ति को पहचानें। अपने देश, धर्म, संस्कृति, प्रकृति तथा संस्कारों की रक्षा के लिए तत्पर रहें। अपने बड़े बुजुर्ग, माता-पिता, गुरूजनों एवं संतों की सेवा और सम्मान करे।