भगवान वामन अवतरणोत्सव के अवसर पर
भगवान वामन अवतरणोत्सव के अवसर पर… मक्का के काबा के पास ही जम जम का कूप से जल लेकर लोग शिवलिंग पर चढ़ाते थे। मक्का के काबा ज्योतिर्लिंग मंदिर का पुन: निर्माण राजा विक्रमादित्य ने करवाया था। दैत्यगुरु शुक्राचार्य को काव्या कहा गया था। राजा बलि ने पातालपुरी की राजधानी काव्या में रख कर शासन किया। #सात्येन्द्र कुमार पाठक
पुरणों और स्मृतियों में दैत्यराज की दानशीलता का महत्वपूर्ण उल्लेख किया गया है। दैत्यराज हिरण्यकश्यप के प्रपौत्र हरि भक्त प्रह्लाद का पौत्र एवं विरोचन का पुत्र बलि शक्तियों का स्वामी धर्मात्मा था। दैत्यराज बलि दानी और शक्तियों पर घमंडी और ईश्वर के समकक्ष मानता था। देवताओं का घोर विरोधी था। देवी और देवता हिमालय क्षेत्र में रहते थे। हिमालय में देवराज इंद्र का एक क्षेत्र नंदन कानन वन के समीप गंधर्वों का निवास तथा कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का निवास था। धरती पर बर्फ और अधिकतर हिस्सा जलमग्न था। मानव गुफाओं में रहता था और सुर और असुर अपनी शक्तियों के बल पर संपूर्ण धरती पर विचरण करते थे। नागलोक का विस्तार था और समुद्र में विचित्र-विचित्र किस्म के प्राणियों का जन्म हो चुका था। प्राचीनकाल में सुर और असुरों का ही राज्य था। सुर को देवता और असुरों को दैत्य कहा जाता था। गंधर्व, यक्ष और किन्नर थे। भगवान शिव के भक्त शुक्राचार्य असुरों के पुरोहित और भगवान विष्णु भक्त सुरों के पुरोहित बृहस्पति थे।
ऋषि भृगु और अंगिरा ऋषि असुर और देव के पुरोहित पद पर थे। सुर और असुरों में साम्राज्य, शक्ति, प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए संघर्ष था। देव गुरु वृहस्पति और दैत्यगुरु शुक्राचार्य थे। शास्त्रों के अनुसार राजा बलि पूर्व जन्म में जुआरी थे। जुए से प्राप्त धन से अपनी प्रिय वेश्या के लिए हार खरीद कर खुशी-खुशी हार लेकर वेश्या के घर जाने लगा। रास्ते में बलि को मृत्यु ने घेर लिया। बलि ने मृत्यु के पूर्व सोचा कि हार वेश्या तक तो पहुंचा नहीं पाऊंगा, चलो भगवान शिव को ही अर्पण कर दूं। हार शिव को अर्पण कर दिया और मृत्यु को प्राप्त हुआ था। चित्रगुप्त ने बलि के कर्मों का लेखा-जोखा देखकर कहा कि बलि ने पाप ही पाप किया परन्तु मरते-समय जुए के पैसे से वेश्या के लिए खरीदा हार ‘शिवार्पण’ कर दिया है। चित्रगुप्त की बात सुनकर यमराज ने (जुआरी बलि से पूछा- रे पापी, तू बता पहले पाप का फल भोगोगे कि पुण्य का। जुआरी बलि ने कहा कि पाप बहुत हैं, पहले पुण्य का फल दे दो। पुण्य के बदले बलि दो घड़ी के लिए इंद्र बनाया गया।
इंद्र बनने पर बलि द्वारा अप्सराओं के नृत्य और सुरापान का आनंद लेने के क्रम में देवर्षि नारदजी ने देखकर मुस्कुराते हुए कहा कि अगर संदेह कि स्वर्ग-नर्क हैं तब सत्कर्म कर लेना चाहिए वर्ना अगर नहीं हुए तब आस्तिक का कुछ नहीं बिगड़ेगा, नास्तिक जरूर मारा जाएगा। देवर्षि नारद की बात सुनते बलि को होश आ गया। उसने दो घड़ी में ऐरावत, नंदन वन समेत पूरा इन्द्रलोक दान कर दिया। इसके प्रताप से वह पापों से मुक्त होने के बाद इंद्र बना और बाद में राजा बलि हुआ था। कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के पुत्र दैत्यराज हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष थे। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। प्रह्लाद के पौत्र एवं विरोचन के पुत्र राजा बलि का जन्म हुआ। देवी और देवताओं के साथ ऋषियों ने घोषणा की थी कि धरती पर दैत्यराज हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष की शैतानी शक्ति का उदय हो गया है। राजा बलि का राज्य संपूर्ण दक्षिण भारत में था। बलि ने महाबलीपुरम को राजधानी बनाया था। केरल में ओणम का पर्व राजा बलि की याद में मनाया जाता है।
राजा बली को केरल में ‘मावेली’ कहा जाता है। राजा बली के राज्य में प्रजाओं की सुख-समृद्धि को स्मरण करते हैं और राजा बली के लौटने की कामना करते हैं। केरल में मनाया जाने वाला विश्वप्रसिद्ध ओणम त्योहार महाबली की स्मृति में मनाया जाता है। वृत्र या मेघ ऋषि के वंशजों को मेघवंशी कहा जाता हैं। शास्त्रों में मानव समूहों को असुर, दैत्य, राक्षस, नाग, आदि कहा गया था। आर्यों और अन्य के साथ पृथ्वी पर अधिकार हेतु संघर्ष में देव पराजित हुए थे। राजा बलि ने विश्वविजय के लिए अश्वमेध यज्ञ कारण प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी। अग्निहोत्र सहित उसने 98 यज्ञ संपन्न कराए थे। राजा बलि ने 99वें यज्ञ की घोषणा कर सभी राज्यों और नगरवासियों को निमंत्रण भेजा। देवता और असुरों की लड़ाई जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षेत्र में 12 बार हुई। देवताओं की ओर से गंधर्व और यक्ष और दैत्यों की ओर से दानव, असुर और राक्षस थे। विरोचननन्दन दैत्यराज राजा बलि के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए, तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया था।
इन्द्र दैत्यों के राजा बलि से युद्ध में हार गए, तब हताश और निराश हुए देवता ब्रह्माजी को साथ लेकर श्रीहरि विष्णु के आश्रय में गए और उनसे अपना स्वर्गलोक वापस पाने के लिए प्रार्थना करने लगे।भगवान श्रीहरि ने कहा कि आप सभी देवतागण दैत्यों से सुलह कर लें और उनका सहयोग पाकर मदरांचल को मथानी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाकर क्षीरसागर का मंथन करें। समुद्र मंथन से जो अमृत प्राप्त होगा उसे पिलाकर मैं आप सभी देवताओं को अजर-अमर कर दूंगा तत्पश्चात ही देवता, दैत्यों का विनाश करके पुनः स्वर्ग का आधिपत्य प्राप्त कर सकेंगे। देवताओं के राजा इन्द्र दैत्यों के राजा बलि के पास गए और उनके समक्ष समुद्र मंथन का प्रस्ताव रखा और अमृत की बात बताई। अमृत के लालच में आकर दैत्य ने देवताओं का साथ देने का वचन दिया। देवताओं और दैत्यों ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर मदरांचल पर्वत को उठाकर समुद्र तट पर लेकर जाने की चेष्टा की लेकिन नहीं उठा पाए तब श्रीहरि ने उसे उठाकर समुद्र में रख दिया था। मदरांचल को मथानी एवं वासुकि नाग की रस्सी बनाकर समुद्र मंथन का शुभ कार्य आरंभ हुआ। श्रीविष्णु की नजर मथानी पर पड़ी, जो कि अंदर की ओर धंसती चली जा रही थी। यह देखकर उन्होंने स्वयं कच्छप बनाकर अपनी पीठ पर मदरांचल पर्वत को रख लिया।
समुद्र मंथन से लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वंतरि, चंद्रमा, पुष्पक, ऐरावत, पाञ्चजन्य, शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैःश्रवा और अंत में अमृत कुंभ लेकर धन्वन्तरिजी का अवतरण हुआ था। उनके हाथों से अमृत कलश छीनकर दैत्य भागने लगे ताकि देवताओं से पूर्व अमृतपान करके वे अमर हो जाएं। दैत्यों के बीच कलश के लिए संघर्ष हुआ था। भगवान श्रीविष्णु अति सुंदर नारी मोहनी का रूप धारण करके देवता और दैत्यों के बीच पहुंच गए थे। मोहनी ने अमृत को समान रूप से बांटने का प्रस्ताव रखा। दैत्यों ने मोहनी की मोहित होकर अमृत का कलश श्रीविष्णु को सौंप दिया। मोहिनी रूपधारी विष्णु ने कहा कि मैं जैसे भी विभाजन का कार्य करूं, चाहे वह उचित हो या अनुचित, तुम लोग बीच में बाधा उत्पन्न न करने का वचन दो तभी मैं इस काम को करूंगी। सभी ने मोहिनी रूपी भगवान की बात मान ली। देवता और दैत्य अलग-अलग पंक्तियों में बैठ गए।
मोहिनी रूप धारण करके विष्णु ने छल से सारा अमृत देवताओं को पिला दिया, लेकिन इससे दैत्यों में भारी आक्रोश फैल गया। समुद्र मंथन से प्राप्त जब अमृत पीकर देवता अमर हो गए, तब फिर से देवासुर संग्राम छिड़ा और इंद्र द्वारा वज्राहत होने पर बलि की मृत्यु हो गई। ऐसे में तुरंत ही शुक्राचार्य के मंत्रबल से वह पुन: जीवित हो गया। लेकिन उसके हाथ से इंद्रलोक का बहुत बड़ा क्षेत्र जाता रहा और फिर से देवताओं का साम्राज्य स्थापित हो गया। राजा बलि ने देवताओं द्वारा हार जाने के बाद अपनी शक्ति एकत्रित की और तपस्या के बदल पर वह फिर से शक्तिशाली बना। तब उसने देवताओं से बदला लेने की ठानी। दैत्यराज बलि द्वारा 100 वां अश्वमेध यज्ञ कर संपूर्ण शक्ति के साथ एक बार फिर इंद्र के राज्य पर कब्जा कर लिया। बलि के अश्वमेघ यज्ञ के कारण देवताओं पर संकट आ गया था। बगैर अमृत पीकर भी राजा बलि इतना मायावी बन बैठा था कि उसको मारने की किसी में शक्ति नहीं थी।
ॠषि कश्यप की पत्नी अदिति के पुत्र भगवान वामन थे। इन्द्र के छोटे भाई और राजा बलि के सौतेले भाई वामन थे। देवता बलि को नष्ट करने में असमर्थ थे। बलि ने देवताओं को यज्ञ करने जितनी भूमि ही दे रखी थी। सभी देवता अमर होने के बावजूद उसके खौफ के चलते छिपते रहते थे। तब सभी देवता विष्णु की शरण में गए। विष्णु ने कहा कि बलि भक्त है, फिर भी वे कोई युक्ति सोचेंगे।अदिति के पुत्र भगवान वामन द्वारा दैत्यराज बलि के अश्वमेघ यज्ञ में ब्राह्मण-वेश में वहां दान लेने पहुंच गए। वामन को देखते दैत्यगुरु शुक्राचार्य उन्हें पहचान कर बलि से कहा कि वे विष्णु हैं। मुझसे पूछे बिना कोई भी वस्तु उन्हें दान मत करना है। बलि ने शुक्राचार्य की बात नहीं सुनी और वामन के दान मांगने पर उनको तीन पग भूमि दान में दे दी। जब जल छोड़कर सब दान कर दिया गया, तब ब्राह्मण वेश में वामन भगवान ने अपना विराट रूप दिखा दिया। एक पग में भूमंडल नाप लिया। दूसरे में स्वर्ग और तीसरे के लिए बलि से पूछा कि तीसरा पग कहां रखूं? पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- इसमें तो कमी आपके ही संसार बनाने की हुई।
अब तो मेरा सिर ही बचा है। इस प्रकार विष्णु ने उसके सिर पर तीसरा पैर रख दिया। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णु ने उस पाताल में रसातल का कलयुग के अंत तक राजा बने रहने का वरदान दे दिया था। राजा बलि ने कहा कि भगवान यदि आप मुझे पाताल लोक का राजा बना रहे हैं तब मुझे वरदान दीजिए कि मेरा साम्राज्य शत्रुओं के प्रपंचों से बचा रहे और आप मेरे साथ रहें। अपने भक्त के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने राजा बलि के निवास में रहने का संकल्प लिया था। राजा बलि के राज्य पातालपुरी में आठों प्रहर भगवान विष्णु सशरीर उपस्थित रह उनकी रक्षा करने से बलि निश्चिंत होकर सोता था और संपूर्ण पातालपुरी में शुक्राचार्य के साथ रहकर एक नए धर्म राज्य की व्यवस्था संचालित करता था। भगवान विष्णु के वैकुण्ठ में नही रहने के कारण सभी देवी-देवता समेत लक्ष्मीजी अत्यंत चिंतित हो गईं।उ देवर्षि नारदजी ने माता लक्ष्मी को एक युक्ति बताई। उन्होंने कहा कि एक रक्षासूत्र लेकर वे राजा बलि के पास अपरिचित रूप में दीन-हीन दुखियारी बनकर जाएं और राजा बलि को भाई बनाकर दान में प्रभु को मांग लाएं। पाताललोक का राजा बलि के दरबार में माता लक्ष्मी उपस्थित हुईं और उन्होंने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें भाई बनाना चाहती हैं।
राजन ने उनका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और उनसे रक्षासूत्र बंधवा लिया और कहा कि अपनी इच्छा के अनुरूप उनसे मांग लें। माता लक्ष्मी ने राजा से कहा कि आप मुझे अपनी सबसे प्रिय वस्तु दे दें। राजा बली ने कहा मेरा सर्वाधिक प्रिय मेरा भगवान विष्णु प्रहरी है, परंतु इसे देने से पूर्व मैं प्राण त्यागना अधिक पसंद करूंगा।तब लक्ष्मीजी ने अपना परिचय उन्हें दिया और बताया कि मैं आपके उसी प्रहरी की पत्नी हूं जिन्हें उन्होंने बहन माना था। उसके सुख-सौभाग्य और गृहस्थी की रक्षा करना उन्हीं का दायित्व था और यदि बहन की ओर देखते उन्हें अपने प्राणों से भी प्रिय अपने इष्ट का साथ छोडऩा पड़ता, पर राजन भक्त, संत और दानवीर यूं ही तो न थे।उन्होंने अपने स्वार्थ से बहुत ऊपर बहन के सुख को माना और प्रभु को मुक्त कर उनके साथ वैकुण्ठ वास की सहमति दे दी, परंतु इसके साथ ही उन्होंने लक्ष्मीजी से आग्रह किया कि जब बहन-बहनोई उनके घर आ ही गए हैं। कुछ मास और वहीं ठहर जाएं और उन्हें आतिथ्य का सुअवसर दें। माता लक्ष्मीजी ने उनका आग्रह मान लिया और श्रावण पूर्णिमा रक्षाबंधन से कार्तिक मास की त्रयोदशी तिथि धनतेरस तक विष्णु और लक्ष्मीजी वहीं पाताल लोक में राजा बलि के यहां रहे। धनतेरस के बाद भगवान विष्णु जब लौटकर वैकुण्ठ जानें पर कार्तिक कृष्ण अमावस्या को सभी लोक में दीप-पर्व मनाया गया।
प्रत्येक वर्ष रक्षाबंधन से धनतेरस तक विष्णु लक्ष्मी संग राजा बलि के यहां रहते हैं। धरती का अधिकतर हिस्सा बर्फ से ढंका था। मिश्र, साऊदी अरब, सीरिया, इराक, तुर्की, तुर्कमेनिस्तान, इसराइल आदि को पातालपुरी कहा जाता था। दलजा, फरात और नील नदियों के आसपास ही सभ्यताएं बसती थी। त्रेतायुग में राम के काल पातालपुरी रसातल का राजा अहिरावण था। 4000 वर्ष पूर्व यहूदी धर्म का आधिपत्य मिस्र, इराक, इजराइल सहित अरब के अधिकांश हिस्सों पर राज था। ईसा पूर्व मक्का में ज्योतिर्लिंग की की स्थापना राजा बलि और दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने किया था। राजा बलि द्वारा अपने आराध्य की मूर्ति रखी और साथ देवी-देवताओं की मूर्तियां, शिवलिंग के साथ स्थापित थी। काबा निवासियों द्वारा ज्योतिर्लिंग मंदिर की सात परिक्रमा किया जाता था। काबा से हटाई गई मूर्तियां इस्तांबूल के एक म्यूजियम में रखी है। मक्का को मखा ( अग्नि ) कहते थे।
मक्का के काबा के पास ही जम जम का कूप से जल लेकर लोग शिवलिंग पर चढ़ाते थे। मक्का के काबा ज्योतिर्लिंग मंदिर का पुन: निर्माण राजा विक्रमादित्य ने करवाया था। दैत्यगुरु शुक्राचार्य को काव्या कहा गया था। राजा बलि ने पातालपुरी की राजधानी काव्या में रख कर शासन किया। त्रेतायुग में राक्षस अहिरावण द्वारा पातालपुरी को रसातल का निर्माण किया था। प्राचीन काल में देव, नाग, गंधर्व, मरुत, अप्सरा, गरुड़, किन्नर, दैत्य, दानव, राक्षस असुर, मानव संस्कृति में सनातन धर्म का सौर, शाक्त, शैव, वैष्णव, ब्रह्म, सोम (चंद्र )सम्प्रदाय था। वैवस्वत मन्वन्तर के त्रेतायुग सर्वजीत संबत्सर भाद्रपद शुक्ल द्वादशी शुक्रवार श्रवण नक्षत्र शोभन योग में भगवान विष्णु का ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति के पुत्र वामन का अवतरण लेकर दैत्यराज बलि के अश्वमेघ यज्ञ में तीन पग पृथिवी दान प्राप्त कर पाताल लोक में राजा बनाया था। राजा बलि सतयुग में भूलोक का राजा था।