पीडितों के दुःख सुनने वाला कोई नहीं : माथुर

पीडितों के दुःख सुनने वाला कोई नहीं : माथुर, अतः 27 सितम्बर 1993 से अप्रैल मई 2000 की अवधि का सरकार लाभ दिलाये ताकि पीडित पक्षकार को मानसिक व आर्थिक वेदना से मुक्ति मिलें और पीडित पक्षकार को उसका वाजिब हक मिल सकें। #कार्यालय संवाददाता
जोधपुर। भारतीय संविधान में समानता की बात कही गई है। वही दूसरी ओर भाषण, लेखन व अभिव्यक्ति की बात भी कही गई है। लेकिन इस लोकतांत्रिक राष्ट्र में पीड़ित पक्ष की बात सुनने वाला कोई नहीं दिखाई देता हैं। राज्य सरकार तो पत्रों की लोटाफेरी ही कर समय व्यतीत कर रही है जिससे पीड़ित पक्ष को समय पर न्याय नहीं मिल रहा है और न्याय के अभाव में पिसता जा रहा हैं।
सेवानिवृत्त कनिष्ठ लिपिक सुनील कुमार माथुर ने बताया कि हर कोई पीड़ित पक्षकार न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटा सकता। चूंकि वह इतना सक्षम नहीं है कि न्याय पाने हेतु धन खर्च कर सके। इसी का लाभ सरकार उठा रही हैं। माथुर ने बताया कि वर्ष 1986 बैच के कनिष्ठ लिपिकों ने न्याय पाने हेतु जनप्रतिनिधियों, मुख्यमंत्री, विधि मंत्री, राज्यपाल, व राष्ट्रपति तक गुहार लगाई लेकिन किसी ने भी न्याय नहीं दिलाया।
न्याय दिलाना तो दूर रहा। पत्र प्राप्ति की सूचना व उस पत्र पर की गई कार्यवाही से भी अवगत नहीं कराया। अगर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के करीबन सात सात बाद इन सफल अभ्यर्थियों को नियुक्ति दी हैं तो इसमें दोषी राज्य सरकार है न कि सफल अभ्यार्थीगण। उन्होंने बताया कि राजस्थान लोक सेवा आयोग अजमेर द्धारा वर्ष 1986 में कनिष्ठ लिपिक संयुक्त प्रतियोगी परीक्षा आयोजित की गयी थी।
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इस परीक्षा के बाद सरकारी सेवा में नियुक्ति के दौरान जमकर धांधली मची। बीकानेर में पदों की संख्या छः से बढाकर चार सौ आठ कर दी और वहां साढे सैंतीस प्रतिशत अंक लाने वाले अभ्यार्थियों को सरकारी सेवा में नियुक्ति दे दी और अन्य जिलों में साठ प्रतिशत अंक लाने वाले अभ्यार्थियों को सरकारी सेवा से वंचित कर दिया।
तब सफल अभ्यार्थियों ने न्याय के लिए पहले हाईकोर्ट का ध्दार खटखटाया और फिर देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया सुप्रीम कोर्ट ने 27 सितम्बर 1993 को सफल अभ्यार्थियों के हक में फैसला दे दिया लेकिन इन सफल अभ्यार्थियों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के करीबन सात साल बाद अप्रैल – मई 2000 में नियुक्तियां दी गई लेकिन 27 सितम्बर 1993 से अप्रैल – मई 2000 तक की अवधि का कोई लाभ नहीं दिया।
यह समय न तो सेवाकाल में जोडा गया और न ही इस समय का राज्य सरकार ने कोई हर्जाना ही दिया जिसके कारण अनेक अभ्यार्थियों को सरकारी सेवा के दौरान 9-18-27 का पूरा लाभ नही मिला चूंकि उनका सेवाकाल ही करीब-करीब 17 साल ही हुआ जिससे वे 18-27 के लाभ से वंचित रह गये वही कम सेवाकाल होने से उनकी पेंशन भी कम बनी जिसकी बजह से इन्हें दौहरी मार झेलनी पड रही हैं।
अतः 27 सितम्बर 1993 से अप्रैल मई 2000 की अवधि का सरकार लाभ दिलाये ताकि पीडित पक्षकार को मानसिक व आर्थिक वेदना से मुक्ति मिलें और पीडित पक्षकार को उसका वाजिब हक मिल सकें।
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