देवभूमि के गाँवों में चारा संग्रहण की अनूठी विधि है “लूठे”
भुवन बिष्ट
रानीखेत। भारत वर्ष के साथ साथ हमारी देवभूमि उत्तराखंड भी सदैव कृषि प्रधान रही है। देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ के गाँवों में पशुपालन, कृषि सदैव ही रोजगार व परिवार के पालन पोषण का सबसे सशक्त माध्यम रहा है। कृषि और पशुपालन को स्वरोजगार के रूप में अपनाकर अनेक परिवार जीविकोपार्जन करते हैं। अश्विन और कार्तिक मास जिसे असोज माह के नाम से भी जाना जाता है इसमें दलहनी फसलों (रैस मास भट्ट गहत आदि कुमांऊनी शब्द )के साथ साथ मडूंवा झूंगरा धान आदि की फसल तैयार हो जाती है। खेतों के किनारे व चारागाह वाले क्षेत्रों में घास भी बड़ी हो जाती है।
पशुओं के साल भर के लिए चारे के रूप में संग्रहण किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा व कुमांऊनी भाषा में लूठे भी कहा जाता है।
अब होता है कटान का कार्य और इसे संग्रहण का कार्य भी कहा जा सकता है। जिससे की इसका उपयोग साल भर आसानी से किया जा सके। क्योंकि पशुपालकों को अपने पशुओं के सालभर के भोजन के लिए चारे का भंडारण एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। मौसम की मार व प्राकृतिक विषमताओं एंव संसाधनों का अभाव के कारण भी इसे संजोये व सुरक्षित रख पाना एक कठिन कार्य है। चारा संग्रहण की इस अनूठी विधि के लिए सर्वप्रथम घास का पहले कटान किया जाता है और फिर इसे काटकर इसे कुछ समय लगभग एक दिन के लिए फैलाकर रखा जाता है। फिर इसे कुछ कुछ मात्रा में अलग अलग बाँधा जाता है और इसे बाँधने के लिए घास का ही उपयोग किया जाता है। इन्हें स्थानीय भाषा व कुमाँऊनी भाषा में पुवे (कुछ मात्रा में बाँधी हुई घास) कहा जाता है। अब इसे पशुओं के साल भर के लिए चारे के रूप में संग्रहण किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा व कुमांऊनी भाषा में लूठे भी कहा जाता है।
इसके संग्रहण की विधि भी अलग अलग प्रकार की होती है। पहले प्रकार में जमीन में एक लम्बा लट्ठा गाढ़ दिया जाता है और जमीन से कुछ फिट ऊँचाई से घास के पुवों को विशेष प्रकार से इसके चारों ओर लगाया जाता और ऊपरी शिरे तक इसे एक शंकु का आकार प्रदान किया जाता है और ऊपरी सिरे को घास से मजबूती से बाँध दिया जाता है इस विधि से संग्रहित घास के लूठों को स्वील के नाम से भी जाना जाता है। इसमें बहुत अधिक मात्रा में घास संग्रहित रहती है। घास संग्रहण करने की दूसरी विधि भी देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ के गाँँवों में अत्यधिक प्रचलन में है।
इस विधि में घास के छोटे छोटे गट्ठे जिन्हें पुवे कहा जाता है। इनको अलग अलग पेड़ो पर इसके चारों ओर विशेष विधि द्वारा लगाया जाता है और इसके ऊपरी सिरे को शंकु का आकार प्रदान करके घास से बाँध दिया जाता है। यह विधि ऊंचे पेड़ो पर होने के कारण कठिन है।लूठों को विशेष रूप से शंकु का आकार प्रदान करना वैज्ञानिक दृष्टिकोण को दिखलाती है, शंकु के आकार के कारण इसके अंदर पानी नहीं जा सकता है और वर्षा हिमपात में भी घास साल भर सुरक्षित रह सकती है।
घास संग्रहण करने की दूसरी विधि भी देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ के गाँँवों में अत्यधिक प्रचलन में है।
इनकी विशेषता यह है कि इनके अन्दर घास कभी भी खराब नहीं होती है अर्थात घास सड़ती गलती नहीं है और विशेष प्रकार से बँधे होने के कारण कोई भी आसानी से इसे नहीं निकाल सकता। घास का यह संग्रहण भंडारण को यदि चारा बैंक या चारा एटीएम कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि इन भंडारों से पशुपालक वर्ष भर पशुओं के पोषण के लिए अपनी अपनी आवश्यकतानुसार इसका उपयोग करते रहते हैं। देवभूमि का सदैव ही हर कण कण महान है और महान है अन्न दाता किसान। कृषि पशुपालन भारतवर्ष और देवभूमि के जनमानस का जीविकोपार्जन का सदैव सशक्त माध्यम रहा है।