ग़ज़ल : समझो

सिद्धार्थ पाण्डेय

ख्वाहिश नहीं के मुझे कीमती असासा समझो
मुक़म्मल भले न समझो मगर जरा सा समझो

ये जो मैं हूँ, पहले ये मैं था ही न कभी
समझ सको तो मुझे वक्त का तरासा समझो

बुझता दिख रहा हूँ मगर बुझा नहीं हूँ मैं
बुझते दीये के जलती लौ की मुझे आशा समझो

ख्वाहिश! जब ख्वाहिश की तरह लगती नहीं तो
मेरी हर ख्वाहिश को तुम बेतहाशा समझो

मुझे मुस्कुराता देख गर अच्छा नहीं लगता
तो मेरे मुस्कुराने को भी तुम तमाशा समझो

मैं इक रोज अर्श पर पहुंचूंगा ये तय है मानो
गर तुम्हे सच न लगे तो झूठा दिलासा समझो

ख्वाहिश नहीं के मुझे कीमती असासा समझो
मुक़म्मल भले न समझो मगर जरा सा समझो

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