आस्था, आपदा और व्यवस्था
ओम प्रकाश उनियाल
प्रकृति कब अपना रौद्र रूप धारण कर बैठे कुछ अनुमान नहीं लगाया जा सकता। प्रकृति के भयावह रूप के कारण हर प्रकार की क्षति होती है। जो भी उसके रास्ते में आता है वह उसे हटा देती है। यही तो विनाशलीला है। इंसान जो कि सबसे चतुर प्राणी है वह भी कितनी कोशिश कर ले लेकिन प्रकृति के तांडव को रोक ही नहीं सकता। बस इतना जरूर है कि इस विनाशलीला से बचने के लिए हाथ-पैर जरूर मारता है। जब मौत सामने नजर आने लगती है तो मन का भय कई गुना बढ़ जाता है।
प्रकृति के इस रहस्य को जानते हुए भी उससे खिलवाड़ करते रहते हैं, छेड़छाड़ करते रहते हैं। वैसे तो प्राकृतिक आपदाएं मौसमानुकूल आती हैं। बरसात के मौसम में भारी बारिश (बादल फटना), बाढ़, भूस्खलन होना, झीलों का टूटना, गर्मियों में आंधी-तूफान, हिमखंडों का खिसकना व पिघलना, तो सर्दियों में एवलॉंच या बर्फीला तूफान जैसी आपदाएं घटती हैं। भूकंप व समुद्री तूफान का कोई निर्धारित मौसम नहीं होता। जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम भी असमय अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगा है।
अमरनाथ यात्रा में हाल ही में आयी आपदा कई जानें लील गयी। अनेकों को अधमरा कर गयी। 16 जून 2013 को केदारनाथ में आयी जल-प्रलय से हमने सबक नहीं लिया। फर्क इतना था कि केदार में जो जल-प्रलय हुआ था वह बहुत ही भयंकर था। अमरनाथ में आपदा का स्वरूप थोड़ा छोटा था मगर वीभत्स भी था।
भोले बाबा ने कुपित होकर अपना तीसरा नेत्र यहां भी खोला। फिर भी श्रद्धालुओं की आस्था कम नहीं हुई। इंसान इतना आस्थावान है कि उसे कितने कष्ट सहने पड़ें वह तीर्थ पर जाने की इच्छा रखता ही है। आपदा को प्राकृतिक न मानकर ईश्वर का ही लीला मानता है। यहां तक कि अपनी लापरवाही को भी नजरअंदाज कर ईश्वर पर पूरा भरोसा कर दोष थोप देता है।
जहां तक व्यवस्था का सवाल होता है तो जब अति भीड़ बढ़ जाती है तो नियंत्रण करना मुश्किल हो जाता है। संसाधन कितने पुख्ता हों कमी पड़ ही जाती है। खासतौर पर दुर्गम स्थलों पर यह स्थिति देखने को मिलती है। आपदा कैसी भी हो सेना का योगदान न हो तो बचाव व राहत पहुंचाना फौरी तौर पर असंभव होता है। प्रशासनिक व्यवस्था तो हमारे देश में हर जगह लुंज-पुंज है।
¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »ओम प्रकाश उनियाललेखक एवं स्वतंत्र पत्रकारAddress »कारगी ग्रांट, देहरादून (उत्तराखण्ड) | Mob : +91-9760204664Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
---|