मां और बच्चों के टिफिन

मां और बच्चों के टिफिन… मां अपने बच्चों की सुरक्षा, स्वास्थ्य के लिए हर आवश्यक कदम उठाने को तैयार रहती हैं। बच्चे को देख कर ही मां उसकी परेशानी समझ जाती हैं। बच्चा बीमार पड जाये तो मां अपना खाना पीना तक भूल जाती है। #सुनील कुमार माथुर, जोधपुर, राजस्थान
3 जुलाई 2024 को समाचार पत्र में यह पढ़कर बेहद दुःख हुआ कि आब बच्चे सवेरे स्कूल टिफिन नहीं ले गए तो कोई टेंशन नहीं। अब लंच से पहले गर्मागर्म टिफिन पहुंच रहा हैं स्कूल। यह समाचार पढकर बेहद आश्चर्य हुआ। स्कूली बच्चों का टिफिन आनलाईन स्कूल में मंगवाना बच्चों को बीमारियों की ओर धकेलना ही कहा जा सकता हैं, चूंकि आनलाईन टिफिन व्यवस्था में मां का प्यार, लाड दुलार, ममता व वात्सल्य का अभाव होता हैं।
भोजन, नाश्ते में शुद्धता और गुणवता नहीं होगी। ऐसा गुणवता रहित नाश्ता केवल बीमारियों को ही न्यौता देगा। दुःख इस बात का है कि जिस मां ने अपने गर्भ में बच्चे को नौ माह व पाला अपने खून से सींचा, उसी मां के पास अपने नन्हे-मुन्ने के टिफिन बनाने के लिए समय नहीं है। यह कैसी विडम्बना है। ऐसी मां को मां कहलाने का भी अधिकार नहीं है, अपितु वह आया से भी कमजोर है।
हम क्यों अपनी सभ्यता और संस्कृति को विलुप्त कर रहे हैं जिस मां को देवी का दर्जा दिया जाता है वहीं मां अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को सवेरे-सवेरे टिफिन बनाकर न दे सकें। ऐसी माताएं बनना किस बात की बुध्दिमता हैं। मां तो मां ही होती हैं। मां अपने बच्चों की सुरक्षा, स्वास्थ्य के लिए हर आवश्यक कदम उठाने को तैयार रहती हैं। बच्चे को देख कर ही मां उसकी परेशानी समझ जाती हैं।
बच्चा बीमार पड जाये तो मां अपना खाना पीना तक भूल जाती है। बच्चों को बीमारियों से बचाने के लिए वह सभी देवी-देवताओं को मनाने की शक्ति रखती हैं। ऐसे भारत वर्ष में आज की मां के पास बच्चे के लिए टिफिन बनाने का समय नहीं है। यह बहुत ही दुःख की बात है।
उक्त समाचार से ज्ञात होता हैं कि आज की माताएं कितनी आलसी है जो अपने बच्चों को समय पर टिफिन भी बना कर नहीं दे सकती हैं। यह सब पाश्चात्य संस्कृति का ही प्रभाव कहा जा सकता हैं। ऐसा करना बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति खिलवाड़ ही कहा जा सकता हैं, कोई बुध्दिमता नहीं।