मुस्लिम के माथे पर क्यों चस्पा है… अशिक्षा का लेबल
सलीम रज़ा
हिन्दुस्तान में 6 धार्मिक समुदायों को अल्पसंख्यक कहा जाता है ,लेकिन सियासी कुचक्र के चलते ये अल्पसंख्यक का शब्द एक ‘खास’ समुदाय की पहचान बनकर रह गया है, या यूं कह लीजिए कि एक खास पहचान बनकर रह गया है। मेरे कहने का अर्थ ये है कि भारत का मुसलमान प्रतीकात्मक अल्पसंख्यक ही समझा जाता है क्योंकि इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि ये 6 अधिसूचित समूहों में सबसे बड़ा तबका यानि देश की आबादी में दहाई के अंकों में अपनी हिस्स्ेदारी रखने वाला सबसे बड़ा अकेला समुदाय मुसलमान ही है । 2011 की जनगणना के हिसाब से इनका फीसद 14़.2 है लेकिन सच्चाई ये है कि मुसलमान बहुसंख्यकों की वर्तमान राजनैतिक और संास्कृतिक कल्पना में एकदम पराये से हो गये हैं।
राजनीतिशास्त्रियों का मानना है कि मुसलमानों में धार्मिकता ज्यादा बढ़ी है ये अच्छे संकेत नहीं हैं, लेकिन ये बात सोलह आने सही है कि धर्म के प्रति जागरूक और श्रद्धा भाव रखना ठीक है…
मुस्लिम की दशा और दिशा पर बयान और तर्क तो बहुत से देखने को मिलते हैं लेकिन उसका निदान करने के लिए सुझाव भी बन्द कमरे तक ही सीमित रह जाते हैं। मुसलमानों के बारे में तर्क तो बहुत हैं लेकिन उससे ज्यादा कुतर्कों की भरमार रहती है जिसके चलतें मुसलमान खुद अपने आपमें भ्रमित हो जाता ह,ै क्योंकि शिक्षा के अभाव में उसके सोचने समझने की क्षमता क्षीण हो जाती है। हमने बहुत कुछ देखा सुना पढ़ा है लेकिन निष्कर्ष ये निकलता है कि दसरे देशों में मुसलमानो के बीच जैसा सामंजस्य देखा गया है वैसा हिन्दुस्तान में देखने को नहीं मिला, मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि हिन्दुस्तान में मुसलमानों का दीन और दुनिया के दरम्यान जो सामंजस्य बैठााना चाहिए था वह किसी हद तक ठीक नहीं है, क्योंकि 2011 की जनगणना के आंकड़े मुस्लिम समुदाय के पिछड़ें होने की कहानी तो और कुछ बयां करते है लेकिन उसी बीच खबर आयी कि हिन्दुस्तान में हर चौथा भिखारी मुस्लिम है, अब ये खबर आ गई कि हिन्दुस्तान में सबसे ज्यादा अनपढ़ मुस्लिम हैं।
ये बात तो कहीं ना कहीं सत्य भी है क्योंकि और अल्पसंख्यक समुदायों से तुलना करें तो हिन्दुस्तान में तुलनात्मक रूप से देखें तो ईसाई समुदाय में स्नातक लोगों का फीसद 8.8 है जबकि जैन समुदाय में स्नातक लोगों का फीसद 25.7 है तो सिक्ख समुदाय में स्नातकों का फीसद 6.4 है लेकिन मुस्लिम समुदाय में स्नातक लोगों का फीसद 2.8 है। निरक्षरों की बात करें तो जैन समुदाय में ये फीसद 13.8 है जबकि मुस्लिम में ये फीसद 42.72 है आप खुद ही देखिए कि सबसे कम पढ़े लिखे और सबसे ज्यादा पढ़े लिखे होने का गौरव अल्पसंख्यक समुदाय को ही है।लेकिन दुःखद ये है कि सबसे बड़े अल्पसंख्यक होने के बावजूद भी मुस्लिम समुदाय शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ है ।
आज़ादी के सात दशक गुजर जाने के बाद भी मुस्लिम समुदाय की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है उनका खुद का समाज ,सरकार या फिर राजनैतिक दल इस पर ध्यान देना बहुत जरूरी है कि आखिर इनके कारक कौन से हैं उपरोक्त या फिर कोई और ? । हमें मुस्लिमों की हालत पर कुछ लिखने से पहले ज़फर आग़ा साहब के तर्क पर ध्यान देने की जरूरत है, उनका कहना है कि मुसलमानों के मन मस्तिष्क पर मौलवियों का बहुत ज्यादा प्रभाव है और वे ही मुसलमानों की तरक्की में सबसे ज्यादा बाधक हैं। वे कहते हैं कि तरक्की और आधुनिकता का सीधा रिश्ता है और मुसलमान आधुनिक नहीं है जिसकी सबसे बड़ी वजह उसके अन्दर आधुनिक शिक्षा का अभाव है , जिसके चलते ये सामुदाय सामाजिक रूप से पिछड़ गया।
समाजशास्त्री कहते हैं कि मुस्लिमों के बीच चलाये जा रहे कार्यक्रम ज्यादातर धार्मिक रंग या कह लें मजहबी चोले से बाहर नहीं आ पा रहे हैं…
विचरणीय सवाल ये है कि किसी भी समाज की रीढ़ की हड्डी उसका मध्यम वर्ग होता है लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि मुस्लिम मध्यम वर्ग मुस्लिमों को शिक्षा के लिए प्रेरित करने वाले वृहद रूप से कोई कार्यक्रम क्यों नहीं चलाता। असगर वजाहत का अपना तर्क है कि आजा़ादी के बाद जन्म लेने वाली ये पहली मुस्लिम पीढ़ी है जो मध्यम वर्ग बनी जिसके चलते उसके अन्दर आत्मसंतोष के अलावा स्वार्थ ने जन्म ले लिया। यहां पर एक बात तो साफ हो गई कि उसके अन्दर दूसरों की फिक्र करने की सलाहियत खत्म हो गई और वो खुद आत्मकेन्द्रित होता चला गया। वहीं दूसरी वजह ये है कि मुस्लिम व्यापारी वर्ग के अन्दर धन कमाने की लालसा और धनबल का खुलेआम प्रदर्शन ने कई सारी कुप्रथाओं को बढ़ावा दिया नतीजा ये निकला कि शिक्षा के प्रति जागरूकता को बढ़ावा देने का काम बहुत ज्यादा दुष्कर हो गया जिसके चलते मुस्लिम समाज पिछड़ता चला गया।
दरअसल मुस्लिमों के अन्दर सामाजिक क्रांति की आवश्यकता है। यहां फिर ज़फर आग़ा की बात को सामने रखना होगा कि उनका कहना है कि मौलवियों ने मुस्लिम समाज को मुख्य धारा की शिक्षा से दूर रखा है जो मुसलमानो के पतन का कारक है। उनका कहना है कि पहले ऐसे हालात नहीं थे क्योंकि आठ सौ साल तक कि हिन्दुस्तान पर मुस्लिमों का वर्चस्व था सदियों तक शान के साथ शासकों की मौजूदगी में रहने के बावजूद भी मुस्लिम समाज पतन के रास्ते पर अग्रसर हो चला जिससे वो आज तक उबर नहीं पा रहा है। इस बारे में समाजशास्त्री कहते हैं कि मुस्लिमों के बीच चलाये जा रहे कार्यक्रम ज्यादातर धार्मिक रंग या कह लें मजहबी चोले से बाहर नहीं आ पा रहे हैं मदरसों का आधुकिीकरण और आधुनिक शिक्षा की बावत मुस्लिम हल्कों में जो काम होने चाहिए अमूमन वो हो नहीं पा रहा है।
मुस्लिम की दशा और दिशा पर बयान और तर्क तो बहुत से देखने को मिलते हैं लेकिन उसका निदान करने के लिए सुझाव भी बन्द कमरे तक ही सीमित रह जाते हैं।
इसके लिए मुस्लिमों का सहयोग बहुत जरूरी हैउनके सहयोग के बगैर ये मुमकिन नहीं है। बहरहाल ये सारी बात देखने और सुनने के बाद नतीजा ये निकलता है कि शिक्षा, उन्नति,तरक्की,प्रगति और आध्ुनिकता का सफर संघर्षों के रास्ते ही आगे की तरफ चला है जो मुस्लिमों के लिए वही हैं जो और धर्मावलम्बिियों के लिए हैं लेकिन ये अफसोसजनक है कि मुसलमान आधुनिक नहीं हो पाया है ,जबकि राजनीतिशास्त्रियों का मानना है कि मुसलमानों में धार्मिकता ज्यादा बढ़ी है ये अच्छे संकेत नहीं हैं, लेकिन ये बात सोलह आने सही है कि धर्म के प्रति जागरूक और श्रद्धा भाव रखना ठीक है क्योंकि धर्म संस्कारों को मजबूत करती है आज देखा गया कि मुस्लिम पहले के मुकाबले अपने लिबास यानि कुर्ता पायजामा सिर पर टोपी और पांचों वक्त का नमाजी ज्यादा हो गया है ये अच्छी बात है लेकिन इसके नतीजे और अर्थ तो ये ही निकलता है कि मुस्लिमों के अन्दर पिछड़ापन और दकियानूसी बाते भी उसी रेशियों में बढ़ी हैं जो उसके पिछड़ेपन और दुर्दशा की गर्त में ले जाने का काम कर रही है।