राजनीतिक विवादों में साहित्य को हथियार बनाना घटिया सोच का परिचायक

राजनीतिक विवादों में साहित्य को हथियार बनाना घटिया सोच का परिचायक… अब उनसे हिंदू और मुसलमान अगर अर्थ का अनर्थ निकाल कर अगर विवाद कायम करने लगें तो सबको परेशानी होगी। किसी को भी मूर्खतापूर्ण बातों को ✍️ राजीव कुमार झा

स्वामी प्रसाद मौर्य जानबूझकर तुलसीदास का अपमान कर रहा है और अब उसका कहना है कि उसे रामचरितमानस की कुछ पंक्तियों से आपत्ति है। वह उसे हटवाना चाहता है और सचमुच ऐसा लगता है कि मौर्य का माथा खराब हो गया है। किसी भी कवि की कविताओं में कई सारी चीजें होती हैं और लाक्षणिक शैली में लिखी जाने वाली कविताओं में किसी पंक्ति का निहितार्थ प्रकट रूप में प्रतीत होने वाले अर्थों से भिन्न भी होता है। कबीर की काव्य पंक्तियों को लेकर भी ऐसा कहा जा सकता है।

अब उनसे हिंदू और मुसलमान अगर अर्थ का अनर्थ निकाल कर अगर विवाद कायम करने लगें तो सबको परेशानी होगी। किसी को भी मूर्खतापूर्ण बातों को करके समाज को गुमराह करने का कोई अधिकार नहीं है।मनु के बारे में इसी तरह मायावती खुलेआम अपमान जनक टिप्पणियां करती रही हैं । वह वर्ण व्यवस्था के काल के चिंतक हैं। कबीर ने मूर्ति पूजा को लेकर या काबा को लेकर जिस तरह की बातें कहीं हैं उनकी बातों को लेकर विवाद कायम किया जा सकता है।

हम लोगों में विवेक बुद्धि है और दिन में रोजा रखत है रात हनत है गाय इन पंक्तियों को लेकर कभी किसी ने कुछ नहीं कहा और न ही पाहन पूजे हरि मिले की बात को पढ़ कर किसी ने कभी आपत्ति की। साहित्य की अपनी एक भाषा है। हमारी साहित्यिक परंपरा में सगुण निर्गुण मत में वैचारिक धरातल पर एकात्मकता का समावेश रहा है और आज इसमें राजनीतिक स्वार्थों को लेकर अंतर विभेद कायम करने की कोशिश की जा रही है।

यह निन्दनीय है। स्वामी प्रसाद मौर्य पर प्राथमिकी दर्ज की गयी है और उससे पुलिस अधिकारियों को बातचीत करनी चाहिए। संभव हो तो उन्हें जेल में बंद कर दिया जाय और चिंतन का मौका दिया जाय। वह सम्मानित नेता हैं । तुलसीदास के रामचरितमानस पर बैन की मांग से मौर्य पीछे हट गया है लेकिन उसमें से कुछ पंक्तियों को हटवाना चाहता है।

इस स्थिति में रामचरितमानस के अलावा अन्य कई ग्रंथों में भी हेरफेर करना होगा और किसी महान लेखक की कृति में ऐसे हस्तक्षेप का अधिकार किसी को नहीं है, मौर्य को यह समझना होगा। उसे भारतेंदु को भी पढ़ना चाहिए। तुलसीदास को भला बुरा कहने का कोई मतलब नहीं है और वह काफी पहले के कवि हैं। आज के दौर की भाषा अलग है, उस समय की भाषा ऐसी ही होती थी । तुलसीदास ने भी कबीर की तरह शास्त्रों का बहुत ज्यादा अनुसरण नहीं किया है।वह लोक कवि हैं।

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