साहित्य लहर
कविता : खेल रहे हैं

सुनील कुमार माथुर
बचपन में मिट्टी में खेला करते थे
गिली मिट्टी में पांव डालकर
सुन्दर – सुन्दर घर बनाया करते थे
बडी मेहनत कर खेल – खेल में
घर बनाया करते थे
हर रोज बनाते और हर रोज तोड देते थे
वे भी बचपन के क्या खेल थे
लेकिन आज मिट्टी के स्थान पर
अधिकारी , कर्मचारी और राजनेता
लाखों से नहीं करोड़ो से खेल रहे है
आलीशान इमारते बना रहे हैं
हर रोज कोई न कोई पकड़ा जा रहा है फिर भी
वे किसी से डरते नहीं है चूंकि
वे करोडों से खेल रहे हैं
खेलना और खिलाना वे खूब जानते हैं
वे जानते है कि भारत सोने की चिडियां है
जितना लूट सके उतना लूट
खेल – खेल में देखों हर कोई लूट रहा है
¤ प्रकाशन परिचय ¤
![]() |
From »सुनील कुमार माथुरस्वतंत्र लेखक व पत्रकारAddress »33, वर्धमान नगर, शोभावतो की ढाणी, खेमे का कुआ, पालरोड, जोधपुर (राजस्थान)Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
---|
Nice
Nice article
Nice poem
Nice