कविता : दुआ बख्शे या बद-दुआ बख्शे

कविता : दुआ बख्शे या बद-दुआ बख्शे, उसकी फ़ितरत बदली है अभी, उसकी आदतें कहाँ सम्भली है अभी, अभी आदतन नादान है वो, इल्म नहीं है के कब, क्या, कहाँ बख्शे, दुआ बख्शे या बद-दुआ बख्शे, सिद्धार्थ गोरखपुरी
दुआ बख्शे या बद-दुआ बख्शे
उसकी मर्जी… के मुझे क्या बख्शे
बख्शने में वो मुझे न बख्शेगा….
अर्ज ये है के कुछ नया बख्शे
जमाना नया फ़साना तैयार कर देगा
बिन – हया शब्दों को औजार कर देगा
ज़माने के जद में.. कभी हद न रहे
हद! जद में रहे तो फिर हया बख्शे
दुआ बख्शे या बद-दुआ बख्शे
उसकी मर्जी… के मुझे क्या बख्शे
उसकी फ़ितरत बदली है अभी
उसकी आदतें कहाँ सम्भली है अभी
अभी आदतन नादान है वो
इल्म नहीं है के कब, क्या, कहाँ बख्शे
दुआ बख्शे या बद-दुआ बख्शे
उसकी मर्जी… के मुझे क्या बख्शे
मेरी शिकायतें आजकल चर्चे में है
उसे संभाले कोई… बहुत खर्चे में है
खर्च डालें हैं लोगों ने भरोसे अब तो
कोई थोड़ा तो भरोसे का वाकया बख्शे
दुआ बख्शे या बद-दुआ बख्शे
उसकी मर्जी… के मुझे क्या बख्शे
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