कविता : कुप्रथा है दहेज प्रथा

कविता : कुप्रथा है दहेज प्रथा… तेरी दुल्हन बनकर जब तेरे, घर आई थी। ढेरों सपने साथ लेके आई थी। अब उन सपनों पे मुहर लगाई जाती है। ये दहेज प्रथा… दुल्हन कुछ भी कहे तो उनको, हर बात पे एक ताना होता है। ✍🏻 राही शर्मा
ये दहेज प्रथा क्यों बंद नही
कराई जाती है।
ये भूख कब मिटेगी क्यों मिटाई
नही जाती है।
आज भी सिसक रही है ललनाएं
बंद दरवाजे के पीछे।
क्यों आवाज उठाई नहीं
जाती है।
अपने बाबुल की लाडली ने अपने
ओंठो को सी लिया है।
अब तो हर किस्सा आंखों से
सुनाई जाती है।
ये दहेज प्रथा…
तेरी दुल्हन बनकर जब तेरे
घर आई थी।
ढेरों सपने साथ लेके
आई थी।
अब उन सपनों पे मुहर
लगाई जाती है।
ये दहेज प्रथा…
दुल्हन कुछ भी कहे तो उनको
हर बात पे एक ताना होता है।
जी भर के उनको सताना
होता है।
क्यों हर रोज रूलाई जाती है।
ये दहेज प्रथा…
घुट-घुट के जीना मर-मर के जीना
चिता तो हर रोज जलती है
दुल्हन की।
और सैंकड़ों दुल्हन हर रोज
जलाई जाती है।
ये दहेज प्रथा…
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