कविता : बोनसाई

बोनसाई, जब कोई तुम्हारी जड़ों से, धीरे धीरे काटे तुम्हीं को, जब कोई तुम्हारी शाख से, धीरे धीरे टहनियों को छांटे, जब कोई संकुचित कर दे, तुम्हारा जीवन, समझ लेना, कुछ यूं बदले जा रहे हो तुम, ग्वालियर, मध्य प्रदेश से आशी प्रतिभा (स्वतंत्र लेखिका) की कलम से…
स्वयं की मूल प्रकृति से
द्वंद करने लगें जब मन,
होने लगे जब यह स्मरण
आकर ,प्रकार वास्तविक
सब बदला जा रहा हैं कही
तब समझ लेना तुम इसे ,
कि कुछ यूं बदले जा रहे हो
बोनसाई बनाएं जा रहे हो तुम।।
जब कोई तुम्हारी जड़ों से ,
धीरे धीरे काटे तुम्हीं को
जब कोई तुम्हारी शाख से
धीरे धीरे टहनियों को छांटे,
जब कोई संकुचित कर दे
तुम्हारा जीवन, समझ लेना
कुछ यूं बदले जा रहे हो तुम
बोनसाई बनाएं जा रहे हो तुम।।
जब अंदर ही अंदर तुम्हें
खोखला किया जा रहा हो,
तुम्हारी योग्यताओं का दोहन कर ,
तुमसे काम बस लिया जा रहा हो ,
छीन कर तुमसे योग्य होने का संबल
अपनी ही छाप लगाकर तुमपर
तुम्हें अजमा रहा हो ,समझ लेना
कुछ यूं बदले जा रहे हो तुम
बोनसाई बनाएं जा रहे हो तुम।।
जिसको ड्राइंग रूम में अपने
कहीं कोने में सजाया गया हो
हां जिसके विस्तार की सारी
संभावनाएं समाप्त करके ही ,
बहुत आकर्षक दिखाया गया हो
तब समझ लेना,गमले में तैयार
कुछ यूं बदले जा रहे हो तुम
बोनसाई बनाएं जा रहे हो तुम ।।
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