एक माह तक मनाए जाने वाला लोकपर्व ‘माघ मरोज’

ओम प्रकाश उनियाल (स्वतंत्र पत्रकार)
भारत देश त्योहारों का देश है। किसी न किसी भाग में हर माह कोई न कोई लोकपर्व मनाया ही जाता है। परंपरागत रूप से मनाए जाने वाले लोकपर्व लोक-संस्कृति की पहचान बनाए रखते हैं एवं लोगों में नयी उमंग व उत्साह भरते हैं।
जिस प्रकार से राष्ट्रीय पर्वों का महत्व है उसी प्रकार लोकपर्वों का भी अपना विशिष्ट महत्व होता है। त्योहार कोई-सा हो उसको मनाने की तैयारियां पहले से ही होने लगती हैं। अपने-अपने स्तर से लोग तैयारियां करते हैं। कुछ त्यौहार एक दिन के ही होते हैं तो कुछ सप्ताह भर या पूरे माह तक भी मनाए जाते हैं।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र जौनसार-बावर व उससे सटे इलाकों जौनपुर, रवांई आदि क्षेत्रों में एक माह तक मनाया जाने वाला ‘मरोज’ लोकपर्व भी शुरु हो गया है। माघ के महीने मनाया जाने वाला यह पर्व ‘माघ मरोज’ के नाम से भी जाना जाता है।
इस पर्व को मनाने की परंपरा तब से शुरु हुई थी जब सदियों पूर्व यहां किरमिर नामक राक्षस का आतंक फैला था और उसका जिस दिन वध किया गया था उस दिन से हर साल यह स्थानीय त्योहार मनाया जाता है।
गांवों में ढोल-डमांऊ की थाप पर हारुल व तांदी नृत्य त्योहार का आनंद और अधिक बढ़ा देते हैं। इस अवसर पर विशेष पकवान तो बनते ही हैं लेकिन बकरों की बलि देने की जो परंपरा आज भी है वह बड़ी अटपटी-सी लगती है।
आज के दौर में जबकि उत्तराखंड के कई इलाकों में मेलों, धार्मिक आयोजनों मे दी जाने वाली पशुबलि प्रथा पर काफी हद तक रोक लग चुकी है फिर भी कुछ क्षेत्रों में पशुबलि की कुप्रथा जारी है।
पर्व मनाने का मतलब यह नहीं कि अपनी खुशी मनाने के लिए जीव की बलि दी जाए। पर्व पवित्रता का द्योतक होते हैं। तदनुरूप ही मनाए जाने चाहिए। बदलाव करने का प्रयास करके तो देखें जो आत्मिक खुशी हरेक के मन को मिलेगी वह त्योहार मनाने का उत्साह दोगुना कर देगी।
¤ प्रकाशन परिचय ¤
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From »ओम प्रकाश उनियाललेखक एवं स्वतंत्र पत्रकारAddress »कारगी ग्रांट, देहरादून (उत्तराखण्ड)Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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