
राज शेखर भट्ट
उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना कोई प्रशासनिक औपचारिकता नहीं थी, बल्कि यह उन असंख्य जनमानसों की तपस्या, बलिदान और संकल्प की परिणति थी, जिन्होंने दशकों तक ‘अपने राज्य’ का सपना जिया था। 9 नवम्बर 2000 को जब उत्तराखण्ड भारत का 27वाँ राज्य बना, तो लगा कि पहाड़ की पीड़ा को आखिरकार स्वर मिल गया। छोटे-छोटे गाँवों, दुर्गम घाटियों और पहाड़ी चौक-चौराहों से उठी आवाज़ ने अंततः देहरादून से दिल्ली तक गूंज पैदा की थी।
उत्तराखण्ड आंदोलन में कोई एक नेता नहीं, बल्कि हर घर, हर माँ, हर छात्र, हर किसान, हर बेरोज़गार युवक शामिल था। खटीमा से लेकर मुज़फ्फरनगर तक हुई शहादतें इस आंदोलन की आत्मा हैं। यह आंदोलन उस अन्याय के विरुद्ध था, जिसमें पहाड़ों की उपेक्षा वर्षों से होती रही — शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, रोज़गार और विकास के हर मोर्चे पर।
राज्य बनने के बाद उम्मीदें बहुत थीं — रोजगार, पलायन पर रोक, शिक्षा के अवसर, महिलाओं की भागीदारी, और पर्यावरण की सुरक्षा जैसे मुद्दे प्राथमिक थे। परन्तु आज, पच्चीस वर्षों बाद जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो सवाल उठते हैं कि क्या हमने उस सपने को पूरा किया? क्या पहाड़ अब भी अपने युवाओं को रोक पा रहा है? क्या गाँवों में फिर से चूल्हे जलने लगे हैं?
राज्य गठन का अर्थ केवल नया नक्शा नहीं होता, बल्कि नई सोच भी चाहिए। उत्तराखण्ड के पास अपार प्राकृतिक संसाधन हैं — जल, जंगल, जमीन और मानवशक्ति — परन्तु इन्हें टिकाऊ विकास की दिशा में इस्तेमाल करना अब भी चुनौती है। जिस पहाड़ ने देश को जल दिया, उसी के गाँव आज प्यासे हैं; जिस भूमि ने सेना को वीर दिए, उसी की सीमाएं आज खाली हो रही हैं।
राज्य स्थापना दिवस का यह अवसर आत्ममंथन का दिन है। यह याद दिलाता है कि हमने किस कीमत पर यह राज्य पाया और अब इसे किस दिशा में ले जाना है। उत्तराखण्ड का भविष्य तभी उज्जवल होगा, जब विकास की नीतियाँ केवल मैदानों में नहीं, बल्कि गाँवों और पहाड़ों के दिलों में उतरेंगी।








