सहारा कलम का
प्रेम बजाज
जब दे जाती है जवाब सहनशक्ति, तब लेती सहारा कलम का,
जब सिल दिए जाते हैं होंठ, मजबूर किया जाता है चुप रहने को, तब लेती हूं सहारा कलम का,
जब घूरती निगाहें बदन का नक्शा पढ़ती हैं, तोलती है जवानी को हवस की भूख के तराजू में,
नहीं सकती रोक उन तीखी, गन्दी निगाहों को तब लेती हूं सहारा कलम का,
जब नहीं बनता कोई सहारा मेरा, तब अपना संबल बनाने को लेती हूं सहारा कलम का,
जब करके बलात्कार मेरे अरमानों का, किया जाता मजबूर सहने को, तब लेती हूं सहारा कलम का,
जब हद से बढ़ जाता है ज़ुल्म, देने को उसका जवाब लेती हूं सहारा कलम का,
जब दे ना पाती हूं जवाब चुभते,तीखे,कड़वे, ज़हरीले,अनचाहे स्पर्श का, तब लेती हूं सहारा कलम का,
जब हवस के पूजारी करते हैं नीलाम सरे-बाज़ार मुझे, फिर भी दोषी मैं बन जाती हूं,
कटार की तरह चुभती हैं सीने में उनकी बातें, नहीं कर सकती उन से जवाब-तलब, तब लेती हूं सहारा कलम का,
नहीं छिपा पाती जब अपनी ही मासूम कली के उस नंगे बदन को,
जो वहशी भेड़ियों द्वारा नोंचा-खरोंचा जाता है,
तब इंसाफ की गुहार लगाने के लिए लेती हूं सहारा कलम का,
जब कोई अपना ही करके अपमानित गिराता है नज़रों से,
नहीं उठने की हिम्मत होती,तब लेती हूं सहारा कलम का,
जब कोई मन के पावन-पवित्र उज्जवल आंचल को बलात्कार की छुरी से दाग़दार कर देता है,
कोई रास्ता नज़र नहीं आता अपनी बेगुनाही के सबूत का तब लेती हूं सहारा कलम का।