
डॉ. रीना रवि मालपानी
जब रमा का विवाह एक प्रतिष्ठित और सम्पन्न परिवार में तय हुआ तब मन में अजीब सी कशमकश थी कि मेरी उम्र तो छोटी है। इतना बड़ा संयुक्त परिवार है। मैं कैसे सामंजस्य बैठा पाऊँगी। अभी तो किसी भी कार्य में दक्षता नहीं है। पारिवारिक रिश्ते-नाते, रीति-रिवाजों की पर्याप्त समझ आने में तो बहुत समय लगेगा। उसके मन भी बड़ी उलझन थी, पर विवाह उपरांत जब घर में गई तो सारी स्त्रियाँ केवल स्त्रियाँ ही थी। वे धौंस, रोब और अकड़ से परे थी।
उन्होंने रमा से कहा कि सारे रिश्ते बाद में आते है, हम सबसे पहले स्त्री है; तुम्हारी सास, जैठानी और ननंद बाद में। तुम सबसे पहले इस घर में सहज हो जाओ। यहाँ पर कोई भी तुम्हें किसी तराजू में नहीं तौलने वाला है। वह अपनी हर छोटी से छोटी समस्या परिवार में रहने वाली स्त्रियों को बताती और सभी मिलजुलकर उस समस्या का समाधान करते। वहाँ पर सभी का सबसे बड़ा गुण माफ करना था। पुरानी बातों को छोड़कर कुछ नया सोचना था। सभी अपने कार्यों में व्यस्त रहते थे।
रमा अपनी माँ से कहती है कि मेरे ससुराल में सुंदरता, गुणों और अवगुणों को तौलने के लिए कोई तराजू नहीं है। सास अपनी पुरानी कहानियाँ नहीं सुनाती कि मेरे जमाने में ऐसा होता था, मैंने यह किया था, मैंने वह किया था। जेठानी अपनी श्रेष्ठता नहीं सिद्ध करती कि मैंने इस घर को संभालने में इतने वर्ष झोंक दिए। ननंद हर समय मान-सम्मान की दुहाई नहीं देती। हर कोई मुझे सहज महसूस कराने में लगा रहता है।
माँ यदि हर परिवार में ऐसी ही परम्परा स्थापित हो जाए तो हर लड़की अपने परिवार को आसानी से अपना लेगी। माँ वहाँ की एक और विशेषता है कि वहाँ पर दोषों पर चर्चा करना स्वीकार नहीं है। दोषों पर ध्यान केन्द्रित करने से उन्नति रुक सकती है, पर समाधान और चिंतन करने से हमारी दृष्टि विकसित होती है। वहाँ पर अपनी गलती को स्वीकार करके हल्का महसूस करने पर भी बल दिया जाता है। माँ मैं भी अब अपने ससुराल के सहयोग के साथ आगे बढ़ना चाहती हूँ।
अपनी सोच को उदार बनाना चाहती हूँ। माँ रमा के वाक्य सुनकर मन-ही-मन उस परिवार के प्रति धन्यवाद और मन से दुआएँ दे रही थी, जिस परिवार ने उसकी बेटी की जिंदगी आसान कर दी। कभी-कभी दुआएँ भी बरकत पैदा करने में सहयोगी होती है। शायद रमा के ससुराल की भी यही खासियत थी। रमा की माँ मन-ही-मन ईश्वर को धन्यवाद दे रही थी कि बेटी की सोच और परिवार की सोच में कितना अच्छा तालमेल दिखाई दे रहा है। भविष्य में मेरा होना या न होना मेरी बच्ची की खुशहाली के लिए जरूरी नहीं होगा। वह आगे की यात्रा अपनी सकारात्मक सोच और पारिवारिक सहयोग से तय कर लेगी।
इस लघुकथा से यह शिक्षा मिलती है कि यदि परिवार में स्त्री यदि अपनी सोच विस्तृत कर ले तो समाज में बड़ा बदलाव हो सकता है और मानवीयता के मस्तक से कलंक का बोझ हमेशा के लिए हट सकता है। रमा के परिवारवालों की अच्छी सोच की वजह से वह खुशहाली की ओर बढ़ रही थी। सारे रिश्तों से सर्वोपरि स्त्री बनने का रिश्ता है। हमेशा पुराने संघर्ष या कठिनाइयों को जताकर भावी पीढ़ी को अपनी श्रेष्ठता बताने का प्रयास न करें बल्कि उन्हें सहज बनाकर अपने परिवार में शामिल करें।
¤ प्रकाशन परिचय ¤
![]() | From »डॉ. रीना रवि मालपानीकवयित्री एवं लेखिकाAddress »उधमपुर, जम्मू-कश्मीर | मो.न. : +91-9039551172 | email : reenaravimalpani@gmail.comPublisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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