लघुकथा : चुनौती
राजीव कुमार झा
अंधेरे में बारिश तेज हो गयी थी और हम इस बरामदे में बूंदाबांदी शुरू होते ही ठहर गये थे , शायद खेतों के बगल से गुजरते इस रास्ते के किनारे बने इस पुराने मकान में अब कोई नहीं रहता था और यहां से शहर काफी दूर था , मैं आकाश में बादल दिखाई देने के बावजूद शाम में चल पड़ा था.
रात में बारिश में घिरना या फिर इसकी तुलना ज बौछारें में इस बरामदे से बाहर निकलना यह सब कुछ मुझे बेहद कठिन लग रहा था और ऐसा लगता था कि यहां रात बिताना किसी चुनौती से कम नहीं है, मेरा मन अंदेशे से भर उठा और ऐसा लगा कि मानो देह की सारी ताकत से मेरा मन किसी का सहारा पाना चाहता हो और बारिश के बारे में वह धूप को कुछ बताना चाहता हो.
बारिश के बाद जब धूप निकल आती है तो उसकी गर्माहट में चांदनी को मुस्कान समायी सी प्रतीत होती है. नींद टूटने के बाद बिस्तर पर मेरा मन अचानक काफी उदास हो गया और ऐसा लगा कि मानो सब कुछ रास्ते में खोकर मैं किसी गंतव्य पर आया हूं और यहां अपने बारे में किसी को कुछ बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है.
सुबह तक उसकी खिलखिलाहट की आवाज मुझे सुनाई देती रही थी. परसों शाम में मुझे फोन करके उसने अपने फैसले के बारे में बताया था और कहा था कि अब मेरे सारे रिश्तों को भूल जाना , मैं इस शहर से भी बाहर जा रही हूं और अब तुम अकेले हो जाओगे और मुझे कुछ भी अपने बारे में बता नहीं पाओगे!
¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »राजीव कुमार झाकवि एवं लेखकAddress »इंदुपुर, पोस्ट बड़हिया, जिला लखीसराय (बिहार) | Mob : 6206756085Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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