कविता : मन मेरा वैरागी
राजीव कुमार झा
मेरे यार
मन के हार
नदी के पार
कभी किसी को
कुछ भी नहीं
बताना
संग हमारे कहीं
उसी बगिया में
तीर चलाना
प्रेम का पंछी
उड़ता आये
अरी सुंदरी
रूप तुम्हारा
कभी बैठ निहारे
कोमल गाल
गुलाब की पंखुड़ियां
धूप में खूब
महकती
पिया की बांहों में
सुंदरी
गजराज रात में
वन के बाहर
नदी किनारे
रास रचाए
शेष पहर
चंदा चमके
तारों से भरे
गगन में
हवा सुहानी
जंगल से बहती
आयी रे!
सुंदरी मुस्कान
तुम्हारी
मेरो मन को
उतना भाये
तुम नैनन सों
जितना तीर चलाये
सावन में नदिया
सबको पास बुलाये
राह दूर तलक
यह आगे जाएगी
किस दिन तुमको
पास बुलाएगी
हम वहीं मिलेंगे
मीरा की नगरी
यहां घूमते
साधु संन्यासी योगी
मन मेरा वैरागी
तुमको भूल न पाए रे!
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¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »राजीव कुमार झाकवि एवं लेखकAddress »इंदुपुर, पोस्ट बड़हिया, जिला लखीसराय (बिहार) | Mob : 6206756085Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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