कविता : माटी का पुतला
सुनील कुमार माथुर
हें मानव ! तू इतना क्यों अभिमान करता हैं
यह मानव देह तो माटी का पुतला हैं
न जाने कब टिला लग जायें और
यह माटी का पुतला फूट जायें , टूट जायें
अरे इंसान ! घमंड तो रावण जैसे
विद्वान को भी ले डूबा फिर भला
तू किस खेत की मूली हैं
जो आया हैं वो जायेंगा, चाहें राजा हो या रंक
हें मानव ! यह तो माटी की देह हैं
यह तो माटी का एक खिलौना हैं
यह एक दिन माटी में ही मिल जायेंगा
अतः हे मानव ! तू अपनें पर इतना घमंड मत कर
इस नश्वर संसार में आया हैं तो
कुछ परोपकार कर , अच्छे धर्म- कर्म कर
दीन दुखियों की सेवा कर
यह तेरा हैं यह मेरा हैं को छोडकर बोल
यह हम सबका हैं
तू क्यों पद – प्रतिष्ठा को पाकर
इतना इतरा रहा हैं
यह सब यहीं धरा का धरा रह जायेगा
तू इसी मिट्टी में खेला – कूदा और बडा हुआ
और
एक दिन इसी मिट्टी में मिल जायेंगा
इस नश्वर संसार में आया हैं तो
प्रेम के दो मीठे बोल तो बोल
जो आया हैं सो जायेगा चूंकि
यह तो माटी का पुतला हैं न जानें कब टूट जायेगा
बहुत खूब
Bahut hi pyari or universal true wali poem….
Nice article
Bahut sunder
Very nice
Bahut sunder kavita
Very nice 👌
👌👌
अति सुंदर
Bhaut hi Sundar
Nice 👍