कविता : धुआं धुआं
कविता : धुआं धुआं… कोई कोहरा कोई धुंध कहे कोई धरती का द्वंद कहे कोई बाधा कोई आनंद कहे पर सबकुछ लगता धुआं धुआं। प्रकृति विचित्र खींचा कैसा चित्र ना दिखे आग रचा अद्भुत स्वांग निष्प्रभ दिशाएं… #व्यग्र पाण्डे (कवि/लेखक), गंगापुर सिटी (राजस्थान)
धुआं धुआं
ये कैसा धुआं
लपेटे धरा पाग
ना दिखे आग
जिज्ञासा मन में जगाये
क्या कहीं लगी आग
आंखों के आगे दृश्यमान
सर्वत्र धुआं धुआं।
ना दिखे हाथ से हाथ
कैसी अनोखी बात
सबकुछ ठिठुरन भरा
चहुंओर हरा भरा
भीगा भीगा धरती का गात
अजब प्रभात
धुआं धुआं।
कोई कोहरा कोई धुंध कहे
कोई धरती का द्वंद कहे
कोई बाधा कोई आनंद कहे
पर सबकुछ लगता
धुआं धुआं।
प्रकृति विचित्र
खींचा कैसा चित्र
ना दिखे आग
रचा अद्भुत स्वांग
निष्प्रभ दिशाएं
सूरज छिपा ओट
डरपाये उसको
वाष्प उगल रहा
हर कुआं कुआं
धुआं धुआं।
सर्वत्र धुआं धुआं।।
देवभूमि उत्तराखंड में उत्तरैणी पर्व पर बनाये जाते हैं घुघुते