कविता : सासू मां

कविता : सासू मां, वह जानती थी वो भी एक बहु थी, एक स्त्री है। मेरे हर गम, हर दुख बड़ी ही सरलता से सहेज लेती थी। मुझे अपने पलकों पर बिठाती थी। मैं घर में सबसे छोटी हूं मुझे हर तरह से सजाती थी। जाते जाते सब कुछ मेरे नाम कर दी। # राही शर्मा, उज्जैन
आज मां की याद
बहुत आ रही है।
रह रह कर वो मेरे
ख्यालों में मुस्कुरा रही है।
मैं बहू हूं, पर बेटी की तरह
मुझे प्यार किया।
लाड़ दुलार किया।
कभी मुझे ये महसूस नहीं हुआ
कि मैं पराई हूं।
मुझे पैदा नहीं किया पर
सगी मां की तरह प्यार किया।
कभी उन्हें गुरूर नहीं हुआ
अपने सास होने का।
वह जानती थी वो भी
एक बहु थी, एक स्त्री है।
मेरे हर गम, हर दुख
बड़ी ही सरलता से
सहेज लेती थी।
मुझे अपने पलकों पर
बिठाती थी।
मैं घर में सबसे छोटी हूं
मुझे हर तरह से सजाती थी।
जाते जाते सब कुछ
मेरे नाम कर दी।
प्यार तो बहुत है उनका
मेरे पास।
हमारे घर को दौलत से
हद से ज्यादा भर दी।
आज भी जब आसमान को
देखती हूं।
तो दिखाई पड़ती है ,
अपने आंचल को खोल कर
मुझे छुपने को कहती है।
मैं रो पड़ती हूं ,
मां वापस आ जाओ,
तुम नहीं हो तो सब कुछ
यह ठाट बाट सब
लगता है बेकार है।
तेरे बगैर मां, मेरा सुखी नहीं
ये संसार है।
मां तुम जेहन में बस्ती हो
हर किसी को मिले
मेरी ये सासू मां
हमेशा सबको यही
कहती हूं मेरी प्यारी मां।
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