कविता : चांद की बांहों में

राजीव कुमार झा
आवारों की बदनाम बस्ती में
तुम्हारी बातें धूप खत्म होने के बाद
शाम की झिलमिल मुस्कान की तरह
याद आती हैं खामोशी की चादर को ओढ़कर
चारों दिशाओं में मुस्कुरा रही है
सुबह होने से पहले हरसिंगार के
फूलों से धरती महकने लगी है
नदी की धारा चन्द्रकिरणों से सजी है
सूरज की रोशनी में धरती श्रृंगार करने
अब मन के उसी बाग में गयी है
जहां दोपहर में सन्नाटा फैल जाता
तुम्हें यहां कोई कितना पास पाता
वह यादों के दरख़्त के नीचे चला जाता
सुबह की धूप में सूरज मुस्कुराता
चांद की बांहों में रात उजाले से भरी
सबको बुलाती तुम चांदनी की तरह
अंधेरे में अपना घर सजाती
यह आवारा मन भटकता यहां सोया
जिंदगी की लौ को असंख्य तारों में
समेटे आकाश हर दिशा में खोया
अरी सुंदरी तुम्हारे तनमन में
किस पल उसने प्रेम का यह बीज बोया
सपनों की सुंदर गली में सुरभित सवेरा आया
जिंदगी के आंगन में उसने सबको बुलाया
तुम नहा धोकर नये कपड़ों में सजी संवरी
रात की झील के किनारे जाकर कहीं ठहरी
चांद का प्रतिबिंब यहां पानी में कहीं झांकता
ग्रीष्म की गली सेआ मानो कोई निकल आया
जेठ की धूप में धूल फांकता
तुम इसी वक्त अब मुस्कुराती
कितने नखरे दिखाती रोज राहों में गुजरती
जिंदगी कुछ पल के लिए तब खिलखिलाती
¤ प्रकाशन परिचय ¤
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From »राजीव कुमार झाकवि एवं लेखकAddress »इंदुपुर, पोस्ट बड़हिया, जिला लखीसराय (बिहार) | Mob : 6206756085Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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