***
साहित्य लहर

कविता : खुद को आधा करता हूँ

सिद्धार्थ गोरखपुरी

जब भी इस दुनिया से मैं खुद को साझा करता हूँ
मानो लगता है मुझको के खुद को आधा करता हूँ

वैसे तो अपूर्ण है ही जीवन
बहुत कुछ अधूरा रहता है
तमाम ख्वाहिशें हैं मन में
कुछ आधा पूरा रहता है
सबको मुकम्मल करना है मैं खुद से वादा करता हूँ
जब भी इस दुनिया से मैं खुद को साझा करता हूँ
मानो लगता है मुझको के खुद को आधा करता हूँ

दुनिया की दुनियादारी में
खुद्दारी कहीं पे खोई है
चादर ओढ़ के एकांत में जाकर
गहरी नींद में सोयी है
ताउम्र खुद्दार रहने को मैं खुद को आमादा करता हूँ
जब भी इस दुनिया से मैं खुद को साझा करता हूँ
मानो लगता है मुझको के खुद को आधा करता हूँ

एकांत की चादर ओढ़ के अबतो
सो जाने का मन करता है
दुनिया से कोसो दूर कहीं
बस खो जाने का मन करता है
अब तो खुद ही बस मैं मोहब्बत ज्यादा करता हूँ
जब भी इस दुनिया से मैं खुद को साझा करता हूँ
मानो लगता है मुझको के खुद को आधा करता हूँ

Devbhoomi Samachar

देवभूमि समाचार में इंटरनेट के माध्यम से पत्रकार और लेखकों की लेखनी को समाचार के रूप में जनता के सामने प्रकाशित एवं प्रसारित किया जा रहा है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Verified by MonsterInsights