कविता : शहर की सभ्यता
कविता : शहर की सभ्यता… वेश्याओं के साज श्रृंगार से दूर लोगों के कौतूहल से बाहर महानगरों में देह व्यापार के धंधों में शामिल लड़कियां सुकून से अपनी जवानी के दिन बाजार में आते- जाते बितातीं लोगों के साथ वे बिल्कुल भी बातें नहीं बनातीं। #राजीव कुमार झा
घर परिवार आंगन
रिश्ते नातों को भुलाकर
यहां सेक्स के बाजार में
जिंस बनती लड़कियां
वेश्यालयों के अंधेरे बंद
कमरों में
अब नहीं सिसकतीं
वे ग्राहकों की तलाश में
हवाई जहाज पर
सफर करते
सागर के पार चली जाती हैं
पहाड़ों को लांघते
हरा-भरा जंगल
उन्हें याद आता
यहां नाइट काटेज में
अक्सर कोई उन्हें बुलाता
देश के माटी की महक
जिंदगी में
वेश्याओं के
साज श्रृंगार से दूर
लोगों के कौतूहल से बाहर
महानगरों में
देह व्यापार के धंधों में
शामिल लड़कियां
सुकून से
अपनी जवानी के दिन
बाजार में आते- जाते
बितातीं
लोगों के साथ
वे बिल्कुल भी बातें नहीं
बनातीं।