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देश को कैसे चलाते हैं मालिक और पूंजीपति

देश को कैसे चलाते हैं मालिक और पूंजीपति, लेकिन अगर यह प्रबंधक मालिक की इच्छानुसार फैक्टरी को नहीं चला पाया और अगर उसने मालिक का मुनाफा नहीं बढ़ाया तो मालिक उसे नौकरी से हटा देगा और उसकी जगह दूसरा प्रबंधक रख देगा। देश के मामले में भी स्थिति ऐसी ही है। यहां देश को पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुसार चलाया जाता है, पूंजीपति ही इस देश के असली मालिक हैं। #सतीश राणा

पूंजीपति या मालिक खुद तो चुनाव लड़ते नहीं हैं और न ही वे मंत्री बनते हैं। तो फिर वे अपना राज कैसे चलाते हैं? असलियत में राज करने के दो ढांचे हैं। एक को अस्थाई ढांचा कह सकते हैं क्योंकि इसमें बदलाव हो सकता है -जैसे विधान सभा या लोेेक सभा या इनके जरिए बनने वाली सरकारें। यह बदलाव लोग कर सकते हैं। लेकिन राज चलाने का एक दूसरा ढांचा भी होता है जो स्थाई होता है क्योंकि इसे बदला नहीं जा सकता है।

डीएम, एसडीओ, बीडीओ जैसे अधिकारी या केन्द्र और राज्यों में बैठे सचिव – क्या उन्हें बदला जा सकता है? कानूनी व्यवस्था में बैठे लोग – क्या उन्हें बदला जा सकता है? इन लोगों को तो हमारे वोट से नहीं चुना जाता है। इसलिए हम हरेक पांच सालों में सरकार बदल सकते हैं, मंत्री बदल सकते हैं लेकिन राज करने या चलाने के लिए यह स्थाई ढांचा मुख्य बुनियाद का काम करता है। आप अपने वोट से जिन लोगों को जिता कर सरकार में बैठाते हैं वे पहले से तय नियमों -नीतियों के अनुसार काम करने के लिए बाध्य हैं।

राज के स्थाई ढांचे में बैठे लोगों का काम यह सुनिश्चित करना होता है कि जो भी पार्टी सरकार बनाए वह पूंजीपति वर्ग के हितों की रक्षा के लिए काम करें। यह ढांचा ढेरों अदृश्य धागों से पूंजीपति वर्ग के साथ बंधा रहता है। अगर पूंजीपति वर्ग को लगता है कि कोई सरकार उनके हितों के अनुसार काम नहीं कर रही है तो वे जरूरत पड़ने पर ऐसी सरकार को बर्खास्त कर सकते हैं। एक घटना 1990 में हुई थी जब असम में चुनी हुई एजीपी सरकार को भंग किया गया था।

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ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कुछ दिन पहले एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के चाय बागान के कुछ अधिकारियों का ‘उल्फा’ के लोगों ने फिरौती के लिए अपहरण कर लिया था और ए.जी.पी. सरकार पर आरोप लगा था कि उसने उल्फा से निबटने के लिए पर्याप्त कड़े कदम नहीं उठाए थे। एजीपी सरकार के गिरने के बाद असम में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और फिर सशस्त्र बलों के जरिए भयानक दमन चक्र चलाया गया। इसी तरह की घटनाएं 1967 और 1969 में पश्चिम बंगाल में भी हुई थी। मजदूरों और किसानों के संघर्षों के फलस्वरूप संयुक्त मोर्चा सरकार बनी।



हालांकि संयुक्त मोर्चा सरकार का नेतृत्व समझौता परस्त था लेकिन फिर भी मजदूरों के जमीनी संघर्षों के दबाव में सरकार को पूंजीपतियों के खिलाफ कुछ कदम उठाने पड़े थे। लेकिन इतना भी पूँजीपतियों को बर्दाश्त नहीं था। जनता के वोटों से चुनी गई सरकार को पूंजीपतियों के हितों के लिए बर्खास्त कर दिया गया। यही कारण है कि सरकार बनाने वाली पार्टियों पूंजीपतियों के लिए काम करने को बाध्य होती हैं लेकिन ऐसा करते समय ये सरकारें ऐसा दिखावा करती हैं मानों वे जनता के हित में काम कर रही हों।



उदाहरण के तौर पर, जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में बैंकों और कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया गया था तब जनता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की गई थी कि यह उसके हित में किया गया है। और अब जब भाजपा बैंकों और कोयला खदानों का निजीकरण कर रही है तब भी यही कहा जा रहा है कि ये कदम आम जनता के हित में ही लिए जा रहे हैं। ऊपरी तौर पर अजीब लगने वाली इन घटनाओं के पीछे का असली कारण क्या है? यह है पूंजीपति वर्ग के हित।



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पूंजीपतियों द्वारा बनाई गई फैक्ट्रियों में उनका व्यक्तिगत निवेश बहुत कम होता है। बड़ी पूंजी बैंकों से आती है। पहले जब बैंकों का स्वामित्व निजी हाथों में था तब आम लोग बैंकों में पैसा रखने में डरते थे क्योंकि उन्हें भय होता था कि कहीं उनका पैसा डूब ना जाये। बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद से जनता में यह डर नहीं रहा। उन्होंने अपनी सारी बचत बैंकों में रखनी शुरू कर दी। अब जनता की इस बचत को बैंक पूंजीपतियों को अपना कारोबार बढ़ाने के लिए देने लगे।



अगर बैंक राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ होता, तो क्या बैंकों के लिए पूंजीपतियों को जरूरी पूंजी उपलब्ध कराना संभव हो पाता? बिलकुल नहीं। बैंक राष्ट्रीयकरण के पीछे का असली कारण पूंजीपतियों का यही हित था। सरकार ने बैंक राष्ट्रीयकरण आम जनता के लिए नहीं किया था। इस सबके बावजूद उस वक्त हमें यह समझाया गया कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण आम जनता के लिए किया गया था। इसी तरह से खदानों के राष्ट्रीयकरण के पीछे भी पूंजीपतियों के हित ही थे। क्या इन खदानों से निकलने वाले कोयले या लोहे का इस्तेमाल आम आदमी ने किया?



इसका इस्तेमाल पूंजीपतियों की फैक्ट्रियों में उत्पादन कार्यों के लिए किया गया। सरकारी धन से अर्थात आम जनता के पैसों से कोयले और लोहें का खनन हुआ और फिर सस्ते दामोें पर इन्हें पूंजीपतियों की फैक्ट्रियों को बेच दिया गया ताकि वे अधिकाधिक मुनाफा कमा सकें। आज पूंजीपतियों की पूंजी की ताकत कई गुणा अधिक बढ़ गई है। अब वे उन क्षेत्रों में निवेश करना चाहते हैं जहां वे पहले निवेश कर पाने योग्य नहीं थे। इसलिए आज पूंजीपति वर्ग चाहता है कि तमाम सरकारी संगठन निजी निवेशकों को सौंप दिए जाये। परिणामस्वरूप 1991 में निजीकरण शुरू हुआ।



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सरकारें चाहे कांग्रेस की हों या भाजपा की या किसी और पार्टी की सभी सरकार निजीकरण के काम को आगे बढ़ा रही हैं। और प्रचार यह किया जा रहा है कि सरकारी क्षेत्र के निजीकरण का काम आम जनता के हित में किया जा रहा है। पहले, अगर विदेश से किसी सामान का आयात किया जाता था तो हमारे देश के पूंजीपतियों को नुकसान होता था, उनका मुनाफा कम हो जाता था। इसलिए विदेश से सामानों के आयात पर तमाम तरह की रोक थी। आज वैश्वीकरण का युग है। बड़ी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया भर में अपनी इच्छा से माल बेचना चाहती है, पूंजी निवेश करना चाहती है।



राष्ट्रीय पूंजीपतियों के हित भी इसके साथ जुड़े हुए हैं। वे भी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिस्सेदार बनना चाहते हैं, ताकि वे विदेशों में अपना उत्पाद बेचकर अपने कारोबार को फैला सकें। इसलिए आज विदेशों से सामानों के आयात पर न के बराबर टैक्स है। विदेशों से आयात के मामले में लगी रोक को पर्याप्त रूप से ढील दे दी गई है – आज प्रतिबंध लगभग न के बराबर है। एक जमाने में ‘हरित क्रांति’ का नारा दिया गया था। इसमें ऊर्वरक, बीज और कीटनाशक उत्पाद बनाने वाली विदेशी कंपनियों के हित जुड़े हुए थे, लेकिन कहा यह गया कि इससे किसानों को फायदा होगा।



आज ‘हरित क्रांति’ के बाद के दौर में जब गरीब और मध्यम किसान अत्याधिक गरीब हो गये हैं, जब ये किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और खेती छोड़ रहे हैं, तब खेती की समूची प्रक्रिया पर राष्ट्रीय और विदेशी कंपनियों का नियंत्रण थोपने का मकसद से एक ‘दूसरी हरित क्रांति’ का नारा दिया जा रहा है। पिछले बीस वर्षों के दौरान हमने देखा है कि आर्थिक नीतियों के मामले में तमाम पार्टियों की सरकारों ने एक जैसी नीतियां ही अपनाई हैं। आम तौर पर इसके लिए हम सरकार बनाने वाली पार्टियों को ही दोषी ठहराते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि वैश्वीकरण-उदारीकरण की नीति ने सभी पूंजीपतियों को एकजुट कर दिया है।

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चूंकि वैश्वीकरण-उदारीकरण की नीति में समूचा पूंजीपति वर्ग एकजुट है, इसलिए जो भी पार्टी सत्ता में आई है उसने हमेशा इसी नीति को लागू किया है। सच यह है कि सरकार पूंजीपति वर्ग के लिए प्रबंधक का काम कर रही है। हमें फैक्ट्रियों का अनुभव है। फैक्टरी का मालिक वहां एक प्रबंधक को नियुक्त करता है ताकि वह मालिक के हित के अनुसार फैक्टरी को चलाए। अगर वह प्रबंधक मालिक के हितों की ठीक तरह से रक्षा कर पाता है, अगर वह मालिक के मुनाफे को बढ़ा पाता है, तब तो उस प्रबंधक की नौकरी बरकरार रहेगी, उसकी पदोन्नति भी हो सकती है और अगर मालिक खुश हुआ तो प्रबंधक को ईनाम भी मिल सकता है।



लेकिन अगर यह प्रबंधक मालिक की इच्छानुसार फैक्टरी को नहीं चला पाया और अगर उसने मालिक का मुनाफा नहीं बढ़ाया तो मालिक उसे नौकरी से हटा देगा और उसकी जगह दूसरा प्रबंधक रख देगा। देश के मामले में भी स्थिति ऐसी ही है। यहां देश को पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुसार चलाया जाता है, पूंजीपति ही इस देश के असली मालिक हैं। सरकार पूंजीपतियों के हितों के अनुसार देश का प्रबंधन करती है और पूंजीपतियों के हित में ही देश को चलाती है। और जब कभी मजदूर किसान-मेहनतकश जनता पूंजीपति वर्ग की लूट के खिलाफ आवाज उठाती है तो पुलिस- प्रशासन-कानूनी व्यवस्था की सारी मशीनरी ऐसे विरोध को विफल करने पर तुल जाती है।



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