
सत्येन्द्र कुमार पाठक
हिंदी साहित्य की विशाल परंपरा में ‘बाल साहित्य’ का स्थान नींव के पत्थर जैसा है। इसमें भी ‘बाल एकांकी’ एक ऐसी सशक्त विधा है, जो दृश्य और श्रव्य माध्यम से बच्चों के कोमल मन पर सीधा प्रभाव डालती है। कहानी या कविता जहाँ कल्पना को उड़ाने देती हैं, वहीं एकांकी यथार्थ और अभिनय के माध्यम से जीवन मूल्यों को सिखाती है। ‘एकांकी’ का शाब्दिक अर्थ है—’एक अंक वाला नाटक’। अंग्रेजी में इसे ” कहा जाता है। हिंदी में पाश्चात्य नाट्य शैली के प्रभाव से आधुनिक एकांकी का विकास हुआ। तकनीकी पक्ष: इसमें जीवन की किसी एक घटना, एक परिस्थिति या एक समस्या का चित्रण होता है।
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बच्चों के संदर्भ में: बच्चों के लिए लिखे गए एकांकी संक्षिप्त, रोचक और शिक्षाप्रद होते हैं। इनका कथानक सीधा और संवाद सरल होते हैं ताकि बच्चे न केवल इसे समझ सकें बल्कि इसका मंचन भी कर सकें। हिंदी बाल एकांकी का इतिहास हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के साथ-साथ विकसित हुआ है। इसे हम निम्नलिखित कालखंडों में विस्तार से समझ सकते हैं: यद्यपि हिंदी एकांकी की जड़ें भारतेंदु हरिश्चंद्र के ‘प्रेमयोगिनी’ (1875) और अन्य नाटकों में देखी जाती हैं, लेकिन बच्चों के लिए स्वतंत्र लेखन 20वीं सदी की शुरुआत में (द्विवेदी युग) आरंभ हुआ। इस दौर के साहित्यकारों ने महसूस किया कि बच्चों के चारित्रिक विकास के लिए केवल उपदेशात्मक कहानियाँ काफी नहीं हैं, उन्हें मनोरंजन के साथ शिक्षा देने वाले नाटकों की आवश्यकता है।
हिंदी में आधुनिक एकांकी की विधिवत स्थापना जयशंकर प्रसाद के ‘एक घूँट’ (1929) से मानी जाती है। इसी कालखंड में भुवनेश्वर प्रसाद के ‘कारवाँ’ ने एकांकी को नया रूप दिया। इसी के समानांतर बाल एकांकी लेखन भी परिपक्व होने लगा। लेखकों ने पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं से हटकर बाल मनोविज्ञान, विज्ञान और सामाजिक समस्याओं को विषय बनाना शुरू किया। स्वतंत्रता के बाद बाल साहित्य में बाढ़ सी आ गई। 1950–60 के दशक में कई महत्वपूर्ण संग्रह प्रकाशित हुए, जिन्होंने इस विधा को स्थापित किया:
- नर्मदाप्रसाद खरे: ‘नवीन बाल नाटक माला’ (1955)
- केशवचंद वर्मा: ‘बच्चों की कचहरी’ (1956)
- कुंदसिया जैदी: ‘चचा छक्कन के ड्रामे’
- भानु मेहता: ‘वे सपनों के देश से लौट आये’
श्री जयप्रकाश भारती की पुस्तक ‘बाल-साहित्य इक्कीसवीं सदी में’ और प्रकाश मनु की ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ इस विकास यात्रा के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं। हिंदी बाल एकांकियों का दायरा अत्यंत विस्तृत रहा है। इनमें मुख्य रूप से चार तरह के स्वरों को पहचाना जा सकता है:
- सामाजिक चेतना: समाज में व्याप्त कुरीतियों, छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ बच्चों को जागरूक करना।
- बाल मनोविज्ञान और हास्य: बच्चों की मासूमियत, उनकी तोतली बोली और उनकी छोटी-छोटी जिदों का चित्रण।
- ऐतिहासिक और राष्ट्रप्रेम: देश के वीरों और ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से देशभक्ति जगाना।
- शोषण का विरोध: प्रतीकों (जानवरों/पात्रों) के माध्यम से सत्ता और ताकत के दुरुपयोग को दिखाना।
दी गई सामग्री के आधार पर कुछ श्रेष्ठ एकांकियों का विस्तृत विश्लेषण नीचे दिया गया है, जो इस विधा की विविधता को दर्शाता है:
| एकांकी | विषय-वस्तु और संदेश |
|---|---|
| दीपा की जिद | बालिका शिक्षा की वकालत करती है। एक बच्ची की पढ़ने की जिद पूरे परिवार की सोच बदल सकती है। |
| मुनारबंदी | ऐतिहासिक घटना पर आधारित गंभीर एकांकी। चरागाह भूमि आंदोलन दिखाती है और बच्चों को अधिकारों के लिए लड़ना सिखाती है। |
| लाख की नाक | प्रतीकात्मक नाटक, सामंतवादी सत्ता और तानाशाही पर प्रहार करता है। बच्चों को बताता है कि झूठी शान का कोई मोल नहीं होता। |
| भों-भों खों-खों | कुत्ता और बंदर पात्र हैं। शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने और मिल-जुलकर रहने की सीख देता है। |
| बिल्ली के खेल | बुद्धिमत्ता और आशावादी दृष्टिकोण का महत्व बताती है। संकट में घबराने की बजाय बुद्धि से काम लेने की सीख। |
| तोतली भाषा का सूबा | सत्य जैसवाल द्वारा रचित बाल हास्य, बच्चों को खूब गुदगुदाता है। |
| हमें बापू से शिकायत है | गांधीवादी मूल्यों और आज की वास्तविकता के द्वंद्व को बच्चों की नजर से दिखाती है। |
बाल एकांकी का महत्त्व: ‘मंच’ ही सबसे बड़ा शिक्षक
बाल साहित्य में एकांकी का महत्त्व केवल पढ़ने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके मंचन (Performance) में है।
- सक्रिय भागीदारी: जब बच्चा किसी पात्र का अभिनय करता है, वह उस पात्र के गुणों (नैतिकता, साहस, सत्य) को आत्मसात कर लेता है।
- टीम वर्क और सहयोग: एकांकी खेलने से टीम वर्क और सहयोग की भावना का विकास होता है।
- आत्मविश्वास: मंच पर बोलने से बच्चों का संकोच दूर होता है और भाषा पर पकड़ मजबूत होती है।
- जीवन की समझ: “बच्चों के मन और मनोभावों को परखकर लिखे गए साहित्य का ही सर्वाधिक महत्त्व है।”
एकांकी जीवन को आनंदमय बनाने का कार्य करती है। हिंदी बाल एकांकी का सफर 20वीं सदी की शुरुआत से आज तक निरंतर जारी है। भारतेन्दु और प्रसाद की परंपरा से शुरू होकर केशवचंद वर्मा और आधुनिक लेखकों तक, इस विधा ने बच्चों को न केवल हँसाया बल्कि उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाने में भी महती भूमिका निभाई है। आज आवश्यकता है कि इन एकांकियों को केवल किताबों तक सीमित न रखकर स्कूलों और मोहल्लों के मंचों तक ले जाया जाए।
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