महिलाओं को मिलने लगा करवाचौथ व्रत का फल ?
वीरेंद्र बहादुर सिंह
दिल खुशी से नाच उठे इस तरह का एक समाचार कुछ दिनों पहले पढ़ने को मिला था। मुंबई के शार्दूल कदम और तनुजा पाटिल शादी के बंधन में बंधे तो दोनों ने एकदूसरे को मंगलसूत्र पहनाया था। स्त्री शादी कर के पति के प्रेम के प्रतीक या सौभाग्य की निशानी के रूप में मंगलसूत्र पहनती है तो पति भी पत्नी को अपना सौभाग्य मान कर उसके प्रेम के प्रतीक के रूप में मंगलसूत्र क्यों नहीं पहन सकता? मंगलसूत्र द्वारा शादीशुदा होने की पहचान मात्र महिलाओं के लिए ही क्यों करनी चाहिए?
सदियों से पूछे जा रहे इस सवाल के जवाब के रूप में फेमनिस्ट शार्दूल ने क्रांतिकारी कदम उठाया है। शार्दूल का कहना है कि मात्र महिलाओं को ही मंगलसूत्र क्यों पहनना चाहिए? हम पति-पत्नी मानव के रूप में समान हैं तो हमारी शादी में भी रीतिरिवाजों में समानता होनी चाहिए। इसलिए शादी के दिन मैं अपनी पत्नी से मंगलसूत्र पहनूंगा, यह बात मैं ने अपने परिवार को पहले ही बता दिया था। थोड़ी दलीलों और हिचकिचाहट के बाद मेरे घर वाले मेरी इस बात के लिए राजी हो गए थे।
हमारे यहां शादी का खर्च लड़की के घर वाले ही उठाते हैं। शादी लड़के-लड़की दोनों की होती है, तो शादी का खर्च केवल लड़की के घर वाले ही क्यों वहन करें? यह दलील दे कर शार्दूल ने शादी के खर्च में भी आधीआधी शेयरिंग की। अगर यही रिवाज बन जाए तो बेटियों के पिता का दिल और जेब दोनों ही सुरक्षित रहेगा।
इसी तरह करवा चौथ के व्रत को ले कर भी तो किया जा सकता है? फिल्म बागबान में हेमा मालिनी अपने फिल्मी पति अमिताभ के लिए व्रत रखती हैं तो उनके पति अमिताभ भी करवा चौथ का व्रत रखते हैं। यह तो रही फिल्म की बात। कुछ लोगों को यह बात हैरान करने वाली भले लगे, पर आज नई पीढ़ी के ऐसे तमाम नौजवान हैं, जो सचमुच में पत्नी के साथ पत्नी के लिए व्रत रखते हैं। आप भले ही इसे दिखावा कह सकते हैं, पर दिखावा ही सही, इसी बहाने वे यह कहने में सॢक्षम हैं कि वे पत्नी को बराबरी का दर्जा दे रहे हैं।
आज सामाजिकता के घेरे से बाहर जा कर सोचने वाली अनेक लड़कियों के मन में कभी-कभी समाज में होने वाली असमानता के प्रति सवाल और आक्रोश दोनों ही पैदा होते हैं। पर समय की लहर उसे शांत कर देती है। जन्म से ले कर मरने तक अनेक रिवाजों को तोड़ कर नई पीढ़ी के अनेक युवा अपनी मां-बहन और पत्नी को समानता का सुख देने की पहल कर रहे हैं। इसके कुछ उदाहरण देखते हैं।
यूनानी सिम्बोसीस स्कूल आफ इकोनॉमिक्स में पढ़ने वाले एक ग्रुप ने सोशल मीडिया पर अपने नाम के पीछे मम्मी का नाम लिखना शुरू किया है। इस ग्रुप के एक सदस्य पूर्व शाह का कहना है कि हमारे पालनपोषण में मम्मी-पापा दोनों का ही सहयोग होता है। मां तो बच्चे को नौ महीने पेट में रखती है। जरूरत पड़ने पर उसके कैरियर, शौक, सुख-दुख सब का ख्याल रखती है। पर बच्चे की पहचान केवल पिता के नाम से होती है।
दैट्स नाॅट फेयर… मां के साथ यह सरासर अन्याय है। इसलिए मां का नाम भी हमारे नाम के साथ जुड़ना चाहिए। यही सोच कर हमने अपने नाम के पीछे मम्मी का नाम लिखने की एक छोटी सी शुरुआत की है। इसमें कोई विद्रोह का भाव नहीं है। पर मन में यह भावना जरूर है कि मां को भी मान-सम्मान मिलना चाहिए।
शादी के बाद हमारे यहां बहू से फर्ज-जिम्मेदारी-सेवा-समझौता जैसे अनेक गुणों की अपेक्षा करना सहज बात है। वह जितना अधिक ससुराल के रंग में रंग जाती है, उतनी ही सद्गुणी मानी जाती है। भले ही यह सब करते हुए उसकी आत्मा रोज मरती। पर अगर बेटा अपनी ससुराल के लिए कुछ करता है या अधिक केयरिंग बनता है तो यह किसी को भी अच्छा नहीं लगता। उसकी हंसी उड़ाई जाती है। सवाल यह है कि जब बहुए ससुराल में बेटी बन सकती हैं तो दामाद अपनी ससुराल में बेटे क्यों नहीं बन सकते?
आज भी 80 प्रतिशत दामाद जब ससुराल जाते हैं तो जितने दिन वहां रहते हैं, रुआब से रहते हैं, शान दिखाते हैं। ससुराल वालों के सुखदुख में इनकी भूमिका लगभग न के बराबर होती है। परंतु बहुए अपनी ससुराल के सुखदुख में सौ प्रतिशत समर्पित रहती हैं। पीड़ा, अन्याय, समानता के सुख के हिंडोले में झूलती महिलाओं को यह सब सहन करना पड़ता है। पर इन सभी संदर्भों में मिलेनियम मैन थोड़ा साफ्ट बना है।
नई पीढ़ी का युवा अब पत्नी के मायके में रौब नहीं जमाता और जरूरत पड़ने पर बेटे की तरह खड़ा रहता है। आज तमाम परिवारों में संतान के रूप में मात्र बेटियां ही हैं और ये बेटियां अपने पैरेंट्स को संभालने की शर्त पर शादी करती हैं और शादी के बाद प्रेम से पति के साथ मिल कर पैरेट्स को संभालती भी हैं। पत्नी के माता-पिता के प्रति फर्ज के अधिकार को अब वह बहाने बना कर रिवाज की बात कह कर टालना नहीं चाहता।
इसके अलावा युवकों में घर के काम और बच्चों की देखभाल के प्रति बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। उच्च डिग्री वाले मोटी कमाई करने वाले युवकों को अपने घर का काम करने में जरा भो शर्म नहीं महसूस होती। जोरू के इन गुलामों पर अब किसी बात का जरा भी असर नहीं होता। आफिस से थक कर आई पत्नी को माइक्रोवेव में खाना बना कर उसे खिलाने में इन्हें आनंद का अनुभव प्राप्त होता है। अगर वे काम नहीं कर सकते तो पत्नी पर किसी तरह का प्रेशर भी नहीं डालते।
इसी तरह बच्चे की देखभाल की भी जिम्मेदारी ये सहजता से निभाते हैं। नेपी बदलने से ले कर बीमारी में जागने तक की जिम्मेदारी भी अब पिता भी मां की तरह ही निभाते हैं। अपने काम की अपेक्षा पत्नी का काम महत्वपूर्ण हो तो वे छुट्टी भी ले लेते हैं और सब से मजे की बात यह है कि ये मर्दानगी के नाम पर पत्नी के व्यक्तित्व को कुचलते नहीं हैं। अंतर्जातीय या अंतरधर्मीय शादी करने के बाद उसके धर्म-रिवाजों के पालन में किचकिच किए बगैर उसे स्पेस देते हैं। खुद जो करते हैं, जो हक या अधिकार उन्हें मिला है, वह करने वह अधिकार प्राप्त करने का हक मां-पत्नी और बहन को भी देते है, यह समानता का भाव नई पीढ़ी के युवकों में तेजी से विकसित हो रहा है।
एक समय था जब पत्नी की कमाई पर पति का अधिकार होता था। अब पति-पत्नी अपनी कमाई को समान स्तर पर खर्च कर सकते हैं या बचा सकते हैं। कैरियर में आगे बढ़ने, कमाने, कुछ नया करने के अपने शौक को समय देने का मौका अब पत्नी को भी उतना ही मिलता है। लेटनाइट ड्यूटी या पार्टी के लिए पत्नी की स्वतंत्रता पर अब बहुत कम पुरुष प्रतिबंध लगाते हैं। पहले शादी के बाद पत्नी का फ्रेंडसर्कल बहुत सीमित हो जाता था, पर अब पति के मित्रों जितना ही महत्व पत्नी के मित्रों को भी मिलने लगा है।
घूमनेफिरने के मामले में भी ये पति की ही तरह स्वतंत्र हैं। अनेक शादीशुदा महिलाएं सोलो ट्रेवलिंग करती हैं। पति को घर और बच्चे सौंप कर पत्नी विदेश जाती हैं। बिजनेस टूर करती हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इनके जीवन में बंधी जंजीरों की कड़ियां धीरे-धीरे कटती जा रही हैं और अब ये मनुष्य या स्त्री के रूप में समान हक या मौका प्राप्त कर रही हैं। ऑफकोर्स यह सर्व सामान्य मामला नहीं, समाज के मुख्य प्रवाह की तस्वीर भी नहीं, पर नई पीढ़ी के संवेदनशील और नारीवादी युवक-युवतियां असमानता के जाल को तोड़ने के लिए कटिबद्ध हैं। ये महिलाओं को मनुष्य के रूप में गौरव दिलाने के लिए मशाल जला रहे हैं। शायद करवा चौथ के व्रत का असली फल यही है।