साहित्य लहर
होली का रंग
नवाब मंजूर
पापा
रंग लाए हो
बाजार गये थे?
लाओ अपना झोली
दिखाओ मुझे!
पापा झेंपते हुए
झोली किचन में रखकर
मम्मी से बोले
अजी सुनती हो
मुन्ने ने रंग के लिए बोला था
कृत्रिम रंग तो बहुत मिल रहे थे
बाजार में
थोड़े महंगे थे
अपने बजट से बाहर भी
पुड़िया दो पुड़िया से क्या होता?
सो गाजर टमाटर पालक ही
एक एक सेर ले आया हूं।
इन्हीं से लाल हरे रंग का
इंतजाम कर देना
और हां हल्दी तो होगा ही किचन में
पीले भी हो जाएंगे?
सब्जी होंगे स्वादिष्ट और
रंग भी मिल जाएंगे!
पूरे प्राकृतिक
जी भर कर खेलेंगे
हम भी होली
त्वचा को नुकसान भी नहीं होगा
और मुन्ना भी नहीं रूठेगा
समझा देना!
कृत्रिम रंगों की होली से
कहां भरता झोली?
बेटा समझ गया
इस बार भी ऐसे ही चलेगा
रंग गुलाल तो चलता रहेगा
परिवार चलना जरूरी है।
होली है, भाई होली है!
¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »मो. मंजूर आलम ‘नवाब मंजूरलेखक एवं कविAddress »सलेमपुर, छपरा (बिहार)Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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