
अंकित तिवारी
आज की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में हम अक्सर समाज की भाग-दौड़ और भीड़-भाड़ में खो जाते हैं। हर दिन एक नई दौड़, एक नई चुनौती और एक नया तनाव हमारे आसपास घूमता रहता है। इस भीड़ में हम कभी पूरी तरह सुरक्षित महसूस नहीं कर पाते — न केवल बाहरी खतरों से, बल्कि भीतर के असंतुलन से भी। शायद यही कारण है कि आज सबसे ज़रूरी है — भीड़ में सतर्क रहना और अकेले में आत्ममंथन करना। हमारी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा दूसरों की उपस्थिति में बीतता है — सड़कों पर, बाज़ारों में, दफ्तरों में या डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों पर।
इस निरंतर हलचल में हम अपने भीतर की आवाज़ सुनना लगभग भूल चुके हैं। हम समाज का हिस्सा तो बन जाते हैं, पर कभी-कभी अपनी असल पहचान को खो बैठते हैं। भीड़ हमें सामंजस्य सिखाती है, पर यही भीड़ हमारे विचारों की स्वतंत्रता को भी सीमित कर देती है। भीड़ में रहना बुरा नहीं, लेकिन यह ज़रूरी है कि हम दूसरों की सोच के बजाय अपनी सोच पर भरोसा करना सीखें। आत्मनिर्भर होना केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक रूप से भी स्वतंत्र रहना है। और यह स्वतंत्रता तभी संभव है जब हम समय निकालकर खुद के भीतर झांकें।
अकेले में रहना आत्ममंथन का सर्वोत्तम अवसर है। यह वह क्षण होता है जब हम अपनी गलतियों को स्वीकारते हैं, अपने लक्ष्य तय करते हैं और अपनी आत्मा से संवाद करते हैं। यह एकांत हमें भीतर की शक्ति से जोड़ता है, हमारी उलझनों को स्पष्ट करता है और आत्मविश्वास को पुनः स्थापित करता है। अकेलापन डर नहीं, बल्कि आत्मबोध की प्रक्रिया है। इसलिए, ज़िंदगी का संतुलन भीड़ और एकांत — दोनों के बीच है। बाहरी दुनिया में रहते हुए हमें सतर्क रहना चाहिए, परंतु आंतरिक दुनिया को समझना और संभालना भी उतना ही आवश्यक है।
मानसिक शांति और आत्मबल तभी संभव है जब हम दोनों पहलुओं को समान रूप से महत्व दें। भीड़ में दूसरों से सावधान रहिए, लेकिन अकेले में अपने भीतर की सच्चाई को पहचानिए — क्योंकि वही सच्चाई आपको स्थिरता और आत्मविश्वास देगी।
-अंकित तिवारी, शोधार्थी, अधिवक्ता एवं पूर्व विश्वविद्यालय प्रतिनिधि








