सभी आरोपितों को पांच दिसंबर को कोर्ट में पेश होने का आदेश
पूर्व डीजीपी ने 1983 में मर चुके नाथूराम से जमीन अपने नाम रजिस्टर करवाई...

(देवभूमि समाचार)
देहरादून। देवभूमि उत्तराखंड के पूर्व पुलिस मुखिया के खिलाफ राजपुर थाने में मुकदमा दर्ज हुआ है। पूर्व पुलिस मुखिया सिद्धू पर सरकारी जमीन कब्ज़ाने और पेड़ काटने का आरोप है। हालांकि इस मामले में एक तहसीलदार को मिलाकर आठ लोग और भी शामिल हैं। पूर्व पुलिस मुखिया के इस प्रकरण में यह सभी संगी-साथी भी मुकदमे में भागीदारी करेंगे। पूर्व पुलिस मुखिया के द्वारा की गयी जमीन धोखाधड़ी के प्रयास के मुकदमे की सुनवाई की गयी है।
सुनवाई करते हुए द्वितीय अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट संजय सिंह की अदालत ने आरोपितों को पांच दिसंबर को कोर्ट में पेश होने के लिए कहा है। शासकीय अधिवक्ता सोमिका अधिकारी ने बताया कि नौ जुलाई 2013 को पूर्व डीजीपी बीएस सिद्धू के इस प्रकरण में राजपुर थाने में मुकदमा दर्ज हुआ है। पूर्व पुलिस मुखिया बीएस सिद्धू ने वर्ष 2012 में मसूरी वन प्रभाग में वीरगिरवाली गांव में 1.5 हेक्टेयर जमीन खरीदी। इस जमीन से मार्च 2013 में साल के पेड़ काट लिए गए।
सूचना मिलने पर वन विभाग ने इसकी जांच कराई तो पता चला कि संबंधित पेड़ जिस जमीन पर हैं, वह रिजर्व फॉरेस्ट है। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि पूर्व डीजीपी और उनके संगी-साथियों ने झूठ और धोखे की चादर को बुनने के लिए कोई कमी नहीं की। क्योंकि मुकदमे से संबंधित जमीन, अभिलेखों में नत्थूराम निवासी कांशीराम क्वार्ट्स दून के नाम थी, जबकि असली नाथूराम की मृत्यु 1983 में हो चुकी थी।
एक तरफ, यह धोखा है अथवा इसे चमत्कार कहें, कुछ समझ नहीं आ रहा है। क्योंकि जो व्यक्ति 1983 में मर चुका है, उसे 2012 में उसे जीवित दिखाया गया है या दुबारा जिन्दा किया गया है। दूसरी तरफ, फर्जी पावर अटार्नी बनाकर इस जमीन को शरद सूद ने सतीश गुप्ता व वेद महावर के साथ मिलकर 2012 को इनके नाम किया है। जो मर चुका है, उसे दुबारा जीवित किया जा सकता है तो जहां पेड़ हैं, उनको कागजों में ‘‘पेड़ नहीं हैं’’ भी दिखाया जा सकता है। पूर्व पुलिस मुखिया और उनके संगी-साथियों ने भी यही किया है।
इनके द्वारा रजिस्टर्ड अनुबंध में जो भूमि दिखाई गयी है, जिसमें पेड़ थे, उसमें कोई पेड़ नहीं दिखाया गया। जिससे स्पष्ट होता है कि पेड़ काटे गये हैं।
हालांकि, यदि उक्त भूमि वन विभाग की है तो इस भूमि से संबंधित सूचना वन विभाग के रिकॉर्ड में होगी। वन विभाग की इस भूमि मौजूद पेड़ों का सूचना भी इनके आंकड़ों में लिखित होगी। इस परेशानी का निराकरण करने के लिए इनके द्वारा फर्जी दस्तावेजों का सहारा लिया गया। जिसमें वनकर्मी जगमोहन रावत, प्रसाद सकलानी और ठेकेदार कुलदीप नेगी सहित शरद सूद, सतीश गुप्ता व वेद महावर ने पेड़ों का कटान कराया।
बहरहाल, 1983 का मृत शरीर, जीवित हो गया था। जिस भूमि में पेड़ थे, वहां चमत्कार हो गया और पेड़ गायब हो गये और वन विभाग की भूमि पर पूर्व पुलिस मुखिया ने कब्जा कर लिया। कुल मिलाकर सभी आरोपियों ने आईपीसी की धारा 420, धारा 467, धारा 468 और धारा 120-B को कंधे पर रखकर गिल्ली-डंडा खेला है।
इस प्रकरण में पूर्व पुलिस मुखिया का यह केस भविष्य में किस तरफ अंगाड़ाई लेता है, यह देखने वाली बात है। क्योंकि मामला अभी जांच, पेशी, सुबूत, गवाह और न्यायालय के बीच त्रिशंकु की भांति चल रहा है। हो सकता है यह प्रकरण नीचे दी गयी धाराओं से संबंधित हो, लेकिन अभी तय करना मुश्किल है। क्योंकि जांच और पेशी चल रही है और कानून अंधा है। महीने-दो महीने या साल-दो साल में सुबूत, गवाह और न्यायलय तय करेगा कि इस प्रकरण का फैसला क्या होगा।
भारतीय दण्ड संहिता की वह धारायें, जिनसे यह मामला संबंध रखता है-
आईपीसी की धारा 120-B
आपराधिक साजिश के अपराध को आकर्षित करने के लिए समझौते का भौतिक रूप से प्रकट होना आवश्यक हैः सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आईपीसी की धारा 120बी के तहत आपराधिक साजिश के अपराध को आकर्षित करने के लिए अपराध करने के लिए समझौते की किसी प्रकार की भौतिक अभिव्यक्ति होनी चाहिए।
आईपीसी की धारा 420
जब भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत धोखाधड़ी और बेईमानी से संपत्ति के वितरण के लिए अपराध किया गया है, तो इस तरह के अपराध करने वाले व्यक्ति को 7 साल के कारावास और साथ ही जुर्माना के साथ दंडनीय ठहराया जाएगा। ऐसा कारावास और जुर्माना अपराध की गंभीरता पर निर्भर करेगा।यह एक गैर-जमानती, संज्ञेय अपराध है और किसी भी न्यायधीश द्वारा विचारणीय है।
आईपीसी की धारा 467
मूल्यवान प्रतिभूति वसीयत या किसी मूल्यवान प्रतिभूति को बनाने या हस्तांतरण करने का प्राधिकार, या कोई धन प्राप्त करने आदि के लिए कूटरचना। सजा – आजीवन कारावास या 10 वर्ष कारावास + आर्थिक दंड। यह एक गैर-जमानती, गैर-संज्ञेय अपराध है और प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है। यह अपराध समझौता करने योग्य नहीं है।
आईपीसी की धारा 468
भारतीय दंड संहिता की धारा 468 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति इस आशय से कूटरचना करता है कि कूटरचित दस्तावेज़ों को छल करने के लिए इस्तेमाल किया जा सके तो उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास की सजा जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही वह आर्थिक दंड के लिए भी उत्तरदायी होगा। सजा- सात वर्ष कारावास+आर्थिक दंड।