
राज शेखर भट्ट
पच्चीस वर्ष किसी भी राज्य के लिए बहुत बड़ा कालखंड होता है। यह न तो इतना छोटा होता है कि बहाने बनाए जाएँ, और न इतना बड़ा कि सब कुछ बदल देने का दावा किया जा सके। उत्तराखण्ड ने इन पच्चीस वर्षों में बहुत कुछ पाया — सड़कें बढ़ीं, शिक्षा संस्थान खुले, पर्यटन ने नई दिशा ली, और राजधानी देहरादून ने आधुनिकता का रूप धारण किया। लेकिन इसी दौरान गाँव खाली हुए, पलायन बढ़ा, और पर्यावरणीय संकट गहराया।
उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी चुनौती ‘असंतुलित विकास’ है। देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी, ऋषिकेश जैसे शहरों में निर्माण और भीड़ का दबाव बढ़ता जा रहा है, जबकि उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़ जैसे पहाड़ी जिलों में स्कूल बंद हो रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाएं अभी भी दूर के सपने हैं।
राज्य का सपना ‘अपने संसाधनों पर अपने अधिकार’ का था, पर आज भी जल-जंगल-जमीन की नीतियां स्थानीय हितों से मेल नहीं खा रहीं। खनन माफिया, भूमाफिया और ठेकेदार राजनीति ने उस जनभावना को चोट पहुंचाई है, जिसने यह राज्य बनाया था।
फिर भी उम्मीद बाकी है। उत्तराखण्ड के युवाओं में प्रतिभा की कमी नहीं, बस उन्हें अवसर चाहिए। महिलाएं आज भी यहाँ आत्मनिर्भरता और सामाजिक बदलाव की धुरी हैं। पर्यटन, ऑर्गेनिक खेती, वन संपदा, और संस्कृति — ये चार स्तंभ राज्य के भविष्य के आधार बन सकते हैं, बशर्ते नीतियां ‘पहाड़ के हित’ के केंद्र में रखी जाएं।
राज्य स्थापना दिवस का यह पच्चीसवाँ वर्ष केवल जश्न का नहीं, बल्कि जवाबदेही का समय है। सरकारों को यह मानना होगा कि विकास तब तक अधूरा है जब तक गाँव जिंदा नहीं रहते। उत्तराखण्ड को केवल ‘तीर्थराज्य’ नहीं, बल्कि ‘रोज़गार राज्य’ बनाना होगा।
हमारे लिए यह अवसर है कि हम अपने शहीदों और आंदोलनकारियों को याद करें — उनके सपनों को फिर से जीवित करें, और संकल्प लें कि आने वाले पच्चीस वर्षों में कोई भी पहाड़ी अपने घर को छोड़ने के लिए मजबूर न हो। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी राज्य आंदोलन के उन वीरों के प्रति, जिनके संघर्ष से यह धरती आज अलग पहचान रखती है।








