
- हाइबरनेशन टूटा, भालू अब गांवों में सक्रिय
- सक्रिय भालू और बढ़ते हमले: जंगल और मानव का टकराव
- पर्यावरण परिवर्तन ने भालुओं के व्यवहार बदले, खतरे की घंटी
- भालुओं की असामान्य सक्रियता से ग्रामीण क्षेत्रों में खतरा बढ़ा
देहरादून। राज्य में भालुओं के हमलों में हो रही लगातार वृद्धि वन विभाग और वन्यजीव विशेषज्ञों के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गई है। जहां पहले सर्दियों के दौरान भालू प्राकृतिक रूप से शीत निद्रा में चले जाते थे, वहीं अब उनके इस स्वाभाविक चक्र में बड़ा बदलाव देखा जा रहा है। सामान्य परिस्थितियों में भालू सबसे ठंडे महीनों में अपने शरीर की ऊर्जा सुरक्षित रखने के लिए कई हफ्तों तक हाइबरनेशन में रहते हैं, किंतु हाल के वर्षों में कई भालू या तो तय अवधि तक शीत निद्रा में नहीं रह पा रहे हैं या कई बिल्कुल भी हाइबरनेशन में नहीं जा रहे। विशेषज्ञों के अनुसार इस असामान्य परिवर्तन ने मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाओं को बढ़ा दिया है क्योंकि सक्रिय रहने वाले भालू भोजन की तलाश में अब अधिक बार मानव बस्तियों के समीप आ रहे हैं।
भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा 2011-12 में किए गए अध्ययन में दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान और उसके आसपास के क्षेत्रों में सात भालुओं को रेडियो कॉलर लगाकर उनके व्यवहार और मूवमेंट का विश्लेषण किया गया था। अध्ययन में पाया गया कि भालू औसतन लगभग 65 दिन शीत निद्रा में रहते हैं, लेकिन अलग-अलग भालुओं में यह अवधि काफी भिन्न थी। कुछ भालू 90 दिन तक हाइबरनेशन में रहे, जबकि कुछ केवल 40 दिन ही शीत निद्रा में जा पाए। विशेषज्ञों का कहना है कि सेब और चेरी के बागानों वाले क्षेत्रों में भोजन की सतत उपलब्धता भालुओं को सालभर सक्रिय बनाए रखती है, जिससे वे जंगल की गहराइयों में लौटने के बजाय आसपास के गाँवों और खेतों की ओर रुख करते हैं। इस कारण इंसानों के साथ संघर्ष की घटनाएँ अनिवार्य रूप से बढ़ जाती हैं।
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सेवानिवृत्त वैज्ञानिक सत्यकुमार के अनुसार यह बदलाव बेहद चिंताजनक है क्योंकि प्राकृतिक परिस्थितियों में जिस प्रकार का परिवर्तन अभी दिखाई दे रहा है, वह भालुओं के पूरे जीवन चक्र को प्रभावित कर सकता है। तापमान में लगातार वृद्धि, अपेक्षित बर्फबारी में कमी और आसानी से उपलब्ध भोजन ने भालुओं के शीत निद्रा चक्र को बाधित कर दिया है। यही कारण है कि वे ठंडी ऋतु में भी सक्रिय बने रहने लगे हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे मानव बस्तियों के अधिक पास आने को मजबूर हो जाते हैं।
इसी तरह राज्य के वन विभाग द्वारा 2018 में यमकेश्वर क्षेत्र में किए गए अध्ययन में यह सामने आया कि कई भालू अपेक्षित समय पर हाइबरनेशन में नहीं जा रहे थे और कई तो पूरे वर्ष सक्रिय देखने को मिले। उस समय लैंसडौन वन प्रभाग में तैनात रहे डीएफओ वैभव कुमार ने बताया कि मौसम में बदलाव के साथ-साथ भोजन की आदतों में आए परिवर्तन और मानव बस्तियों के पास भोजन की बढ़ी उपलब्धता इस असामान्य व्यवहार के प्रमुख कारण हैं। जब भालू जंगल के भीतर पर्याप्त भोजन नहीं पाते, तो वे गाँवों, खेतों और बागानों की ओर रुख कर लेते हैं, जिसके बाद टकराव की संभावनाएँ तेजी से बढ़ जाती हैं।
लगातार बढ़ती घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भालुओं का पारंपरिक जीवन चक्र तेजी से बदल रहा है और यह बदलाव मानव सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि समय रहते वन्यजीव प्रबंधन, जंगलों के पुनर्जीवन, भोजन उपलब्धता के संतुलन और मानवीय गतिविधियों के नियमन पर ध्यान नहीं दिया गया, तो आने वाले वर्षों में यह समस्या और अधिक विकराल रूप ले सकती है। वन विभाग के अनुसार इस दिशा में दीर्घकालिक रणनीति, वैज्ञानिक निगरानी और संवेदनशील क्षेत्रों में सतर्कता बढ़ाना अब अत्यंत आवश्यक हो गया है ताकि मानव-वन्यजीव संघर्ष को नियंत्रित किया जा सके और प्राकृतिक पारिस्थितिकी संतुलित बनी रहे।







