
नई दिल्ली। देश की न्यायपालिका के एक महत्वपूर्ण अध्याय की शुरुआत आज उस समय हुई जब जस्टिस सूर्यकांत ने भारत के 53वें मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में शपथ ग्रहण की। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उन्हें पद की शपथ दिलाई, जिसमें प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों और देश के कई वरिष्ठ संवैधानिक पदाधिकारियों की उपस्थिति ने इस क्षण को और ऐतिहासिक बना दिया। परंपरागत वरिष्ठता के आधार पर इस सर्वोच्च जिम्मेदारी का निर्वाह अब उनके हाथों में है, और लगभग 14–15 महीनों के कार्यकाल में उनसे न्यायिक सुधारों और न्यायिक गति बढ़ाने की व्यापक उम्मीदें की जा रही हैं।
भारत में मुख्य न्यायाधीश का पद मात्र प्रशासनिक नहीं, बल्कि संवैधानिक व्यवस्था की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है। जस्टिस सूर्यकांत अपनी गहन संवैधानिक समझ, संतुलित निर्णयों और कठिन कानूनी प्रश्नों पर सूक्ष्म विश्लेषण के लिए जाने जाते रहे हैं। यही कारण है कि उनका इस शीर्ष पद पर पहुँचना न केवल न्यायपालिका, बल्कि पूरे भारतीय लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण संदेश देता है। देश इस समय नागरिक अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजता और संघीय ढाँचे से जुड़े संवैधानिक प्रश्नों के मध्य खड़ा है, और सर्वोच्च न्यायालय इन मुद्दों का निर्णायक केंद्र बना हुआ है। आने वाले समय में इन संवेदनशील मामलों पर उनका दृष्टिकोण और निर्णय लोकतांत्रिक संतुलन को गहराई से प्रभावित करेंगे।
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भारतीय न्यायपालिका की सबसे बड़ी चिंता है— लंबित मामलों का लगातार बढ़ता बोझ। निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लाखों मामले वर्षों से निर्णय की प्रतीक्षा में हैं। शपथ के तुरंत बाद जस्टिस सूर्यकांत ने संकेत दिया कि वे हाई कोर्ट और जिला न्यायालयों के साथ तालमेल मजबूत कर लंबित मामलों को कम करने की दिशा में गंभीर प्रयास करेंगे। परंतु चुनौती केवल सुनवाई तेज करने में नहीं, बल्कि पूरे न्यायिक ढाँचे में संरचनात्मक सुधार लाने में है। न्यायाधीशों की कमी, मामलों के वर्गीकरण और प्राथमिकता निर्धारण, तकनीक के प्रभावी उपयोग, ई-कोर्ट्स, वीडियो हियरिंग, केस मैनेजमेंट— इन सभी क्षेत्रों में गहरे बदलाव की आवश्यकता है।
नए मुख्य न्यायाधीश के सामने एक और महत्वपूर्ण दायित्व है— सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक ढाँचे को अधिक पारदर्शी और प्रभावी बनाना। रोस्टर निर्माण से लेकर बड़ी संवैधानिक पीठों के गठन में समय पर निर्णय लेना आवश्यक है, क्योंकि कई अहम संवैधानिक मुद्दे वर्षों से लंबित हैं। यदि वे इन मामलों को प्राथमिकता देकर सुनवाई सुनिश्चित करते हैं, तो जनविश्वास और अधिक मजबूत होगा। साथ ही, डिजिटल न्यायिक प्रक्रियाओं से गति तो बढ़ेगी, परंतु यह संतुलन बनाए रखना अनिवार्य होगा कि न्याय की गुणवत्ता और गहराई कहीं क्षीण न हो।
तीनों संवैधानिक स्तंभों— विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका— के बीच संतुलन भारतीय लोकतंत्र का मूल है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के साथ यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक होता है कि वह नीतिगत मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप करती हुई ‘अति-सक्रिय’ न दिखे और न ही राजनीतिक दबावों के सामने झुके। जस्टिस सूर्यकांत के सामने यह चुनौती और भी व्यापक है क्योंकि देश कई राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों से गुजर रहा है। इस समय न्यायपालिका की भूमिका जनता के भरोसे को सुरक्षित रखने में निर्णायक होगी।
न्याय को आम जनता तक ले जाना भी उतना ही बड़ी चुनौती है। न्यायिक प्रक्रिया अभी भी देश के बड़े वर्ग के लिए जटिल और खर्चीली बनी हुई है। कानूनी सहायता तंत्र, लोक अदालतें, निचली अदालतों में सुधार, और समाज के अंतिम व्यक्ति तक न्याय की पहुँच बढ़ाना— ये सब ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें नए CJI के प्रशासनिक निर्णय महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
जस्टिस सूर्यकांत का कार्यकाल भले ही लंबा न हो, पर यह समय अत्यंत निर्णायक है। यदि वे लंबित मामलों में कमी, संवैधानिक संतुलन की रक्षा, न्यायिक प्रक्रियाओं में सुधार, और न्याय की पहुँच को व्यापक बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाते हैं, तो उनका नेतृत्व आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मजबूत, पारदर्शी, संवेदनशील और आधुनिक न्यायपालिका की नींव रख सकता है। भारत की न्याय व्यवस्था इस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है, और नए मुख्य न्यायाधीश के पास यह अवसर है कि वे इस मोड़ को एक नई दिशा दें— जो न्याय, स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों को और अधिक सुदृढ़ बनाए।







