
राज शेखर भट्ट
उत्तराखण्ड की संस्कृति हिमालय की गोद में पनपी उस प्राचीन जीवनशैली का विस्तार है, जिसमें प्रकृति, अध्यात्म, लोकगीत, पर्व–त्योहार, परिधान, भोजन, तंत्र–मंत्र, लोकदेवता और सामूहिक जीवन की अनूठी परंपराएँ एक साथ गुंथी हुई हैं। यह संस्कृति केवल रीति–रिवाजों का संग्रह नहीं, बल्कि एक ऐसा जीवनदर्शन है जहाँ मनुष्य और प्रकृति का संबंध सबसे गहरा, सबसे आत्मीय और सबसे सहज रूप में मिलता है। गढ़वाल और कुमाऊँ—दोनों ही मंडलों की सांस्कृतिक धरोहरें अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ उत्तराखण्ड को अनोखी पहचान देती हैं।
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प्रकृति और जीवन के बीच गहरा संबंध
उत्तराखण्ड की संस्कृति की जड़ें प्राकृतिक परिवेश में गहराई तक धंसी हैं। यहाँ के पर्वत, नदियाँ, जंगल, बुग्याल और ग्रामीण परिदृश्य लोगों के जीवन का अभिन्न अंग हैं। गंगा, यमुना, सरयू, पिंडर और अलकनंदा जैसी नदियाँ सिर्फ जलधाराएँ नहीं, बल्कि जीवन की धुरी, श्रद्धा की प्रतीक और लोकगीतों के विषय हैं। इसी प्रकार नंदा देवी, त्रिशूल, बंदरपूंछ और पंचाचूली जैसी हिम शृंखलाएँ लोकमान्यता में देवी–देवताओं का रूप ले लेती हैं। उत्तराखण्ड के लोग प्रकृति को पूजते हैं, उससे डरते हैं, उसके साथ जीते हैं और उसे जीवन का हिस्सा मानते हैं। यही कारण है कि यहाँ जंगलों, खेतों, बुग्यालों, नदियों और मौसम से जुड़े कई पर्व–त्योहार आज भी उतनी ही श्रद्धा के साथ मनाए जाते हैं।
भाषा और लोकसाहित्य: गढ़वाली और कुमाऊँनी की मधुरता
गढ़वाली और कुमाऊँनी भाषाएँ उत्तराखण्ड संस्कृति की नींव हैं। गढ़वाली भाषा में ‘जग्वाल’, ‘छोटी’, ‘हू’ जैसे अंचल अनुसार कई रूप मिलते हैं, जबकि कुमाऊँनी में ‘असी’, ‘तसी’, ‘हामी’ जैसे स्थानीय स्वरों की मिठास है। लोककाव्य, वीरगाथाएँ, प्रेमगीत, पारंपरिक विवाह गीत, और देवी–देवताओं की कथाएँ पीढ़ियों से मौखिक परंपरा के माध्यम से चलती आई हैं। गढ़वाली का ‘जागर’ और कुमाऊँनी का ‘झोड़ा–चांचरी’ लोकसंगीत की आत्मा हैं। ‘बेदु पाको बारो मासा’, ‘फुलारी’, ‘छपेली’, ‘थड़िया’, ‘चांचरी’, ‘हुरकिया बौल’ जैसी धुनें पूरे प्रदेश में आज भी प्रत्येक आयोजन में गुंजती हैं। ढोल–दमाऊँ, भंकोरा, रणसिंघा, तुरही, हुरका और हुड़का उत्तराखण्ड के संगीत को विशिष्ट पहचान देते हैं।
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लोकदेवता और धार्मिक परंपराएँ
उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक आत्मा लोकदेवताओं और स्थानीय देवी–देवताओं के इर्द–गिर्द घूमती है। यहाँ की लोकदेवता परंपरा अत्यंत समृद्ध और विविध रूपों में विद्यमान है। महाशक्ति स्वरूप नंदा देवी, गोल्ज्यू महाराज, सैम देवता, गोरिल देवता, हरेश्वर, भोलानाथ, कत्यूरियों के देवता, और दूंनागिरि की शक्तियाँ लोगों की आस्था का केंद्र हैं। जागर उत्तराखण्ड की अनूठी तांत्रिक–आध्यात्मिक परंपरा है, जिसमें ढोल–दमाऊँ की थाप पर देवता लोककथाओं और पुरातन मान्यताओं के साथ ‘आवाहित’ होते हैं। इसे उत्तराखण्ड की जीवंत सांस्कृतिक धड़कन कहा जाता है।
इसी प्रकार बगवाल (चम्पावत), देवी के मेले, नंदा राजजात जैसी परंपराएँ आज भी सैकड़ों वर्षों बाद भी वही श्रद्धा लिए जीवित हैं। उत्तराखण्ड के विवाह समारोह सरलता और लोकगीतों से भरे होते हैं। ‘मांगल’, ‘बैर’, ‘सुपा–लख्तो’, ‘थड़िया’, ‘छपेली’ जैसे पारंपरिक गीत विवाह को सांस्कृतिक रंग देते हैं। गाँवों में आज भी सामूहिक श्रम (डांगरी प्रथा), अतिथ्य सत्कार और ‘हलो–पुकार’ की प्रथाएँ जीवित हैं। छोटे–छोटे घर, ढलान वाले खेत, गौशालाएँ और लकड़ी–पत्थर से बने पारंपरिक मकान पहाड़ी जीवन का आधार हैं।
पर्व–त्योहार: ऋतुओं और कृषि–चक्र से जुड़े उत्सव
उत्तराखण्ड में पर्व सिर्फ धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि कृषि–जीवन का उत्सव हैं।
- हरेला—हरियाली और प्रकृति की पूजा
- भिटौली—ममता और बहन–भाई का स्नेह
- फूलदेई—वसंत और नई शुरुआत का प्रतीक
- उत्तरायणी और मकर संक्रांति—कुमाऊँ में सामूहिक मेलों की परंपरा
- नंदा देवी मेला—गढ़वाल और कुमाऊँ की संयुक्त विरासत
- दीपावली, होली, दशहरा—स्थानीय स्वरों और लोकनृत्यों के साथ
- बगवाल (देवी युद्ध उत्सव)—पारंपरिक आस्था और लोकविश्वास का बड़ा रूप
हर त्योहार में प्राकृतिक तत्वों—फूल, पत्ते, अनाज, मिट्टी, जल—का अनिवार्य स्थान होता है।
पहनावा और आभूषण
पारंपरिक परिधान उत्तराखण्ड की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
गढ़वाल में:
- महिलाओं का घाघरा–चोली, पाड़ा, रंगीन दुपट्टा
- पुरुषों का चोला–दगला, ढकुली, पगड़ी
कुमाऊँ में:
- महिलाओं का पिचौरा (विवाह का प्रतीक), घाघरा, ओढ़नी
- पुरुषों का कुर्ता–चोला, पगड़ी
आभूषणों में नथ, पौंची, गलोबंद, मांगटीका, चूड़ी, बिछुवे और बुलाक प्रमुख हैं। ये केवल आभूषण नहीं, बल्कि सामाजिक पहचान और पारिवारिक परंपरा का प्रतीक हैं।
भोज्य संस्कृति: सरलता, पौष्टिकता और स्थानीय स्वाद
उत्तराखण्ड का भोजन जलवायु और ग्रामीण जीवनशैली से गहराई से जुड़ा है।
कुमाऊँ और गढ़वाल दोनों जगह दाल–भात मुख्य भोजन है, परंतु यहाँ की पारंपरिक व्यंजन अपनी विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध हैं—
- झंगोरा की खीर
- मंडुवे की रोटी
- गहत, भट्ट की दाल
- चैंसू
- आलू के गुटके
- भांग की चटनी
- कुमाऊँ का विशिष्ट बाल मिठाई
- अरसे, रोटी मिठाई, सिंगल
ये व्यंजन पर्वतीय जीवन के पोषण और ऊर्जा का आधार हैं।
नृत्य और कला
उत्तराखण्ड के लोकनृत्य सामूहिकता और उत्साह का प्रतीक हैं—
- चपेली—युवा जोड़ों का नृत्य
- झोड़ा—सामूहिक गोल नृत्य
- चांचरी—गीत–नृत्य परंपरा
- थडिया—त्योहारों का मुख्य नृत्य
- चोलिया नृत्य (कुमाऊँ)—कत्यूर और चंद राजाओं की परंपरा का वीर नृत्य
चित्रकला में ‘ऐपन’ (लाल मिट्टी पर चावल के घोल से बनी शुभ चित्रांकन कला) विश्वभर में प्रसिद्ध है।
आज की चुनौतियाँ और सांस्कृतिक पुनर्जागरण
आधुनिकीकरण, पलायन, शिक्षा और रोजगार के लिए बाहरी राज्यों में जाना संस्कृति पर प्रभाव डाल रहे हैं। गाँवों के खाली होने से लोकगीत, बोलियाँ, परंपराएँ और सामाजिक संरचनाएँ कमजोर हो रही हैं। परंतु इसके समानांतर सांस्कृतिक पुनर्जागरण की मजबूत लहर भी दिखाई देती है। स्थानीय कलाकार, भाषा–संरक्षण आंदोलन, सांस्कृतिक महोत्सव, राज्य सरकार की योजनाएँ, सोशल मीडिया पर लोकगीतों की लोकप्रियता और होम–स्टे संस्कृति ने फिर से स्थानीय पहचान को नया जीवन दिया है।
उत्तराखण्ड की संस्कृति केवल आस्था और परंपरा का संग्रह नहीं, बल्कि हिमालयी जीवन की आत्मा है—जहाँ मनुष्य प्रकृति को ईश्वर के समान मानता है, जहाँ लोकगीतों में प्रेम और पीड़ा साथ चलते हैं, जहाँ त्योहार ऋतुओं के परिवर्तन का स्वागत करते हैं, और जहाँ हर घर की देहरी पर ‘अतिथि देवो भव’ की परंपरा जीवित है। गढ़वाल और कुमाऊँ का यह सांस्कृतिक संसार उत्तराखण्ड को केवल एक भौगोलिक प्रदेश नहीं, बल्कि एक जीवंत, गूंजता हुआ, भावनाओं से भरा सांस्कृतिक परिवार बनाता है। उत्तराखण्ड की संस्कृति उतनी ही सरल है, जितनी गहन; उतनी ही शांत, जितनी ऊर्जावान; और उतनी ही पुरानी, जितनी आधुनिक बदलावों के बीच भी जीवित रहती है।








