
✍️ प्रियंका सौरभ
नई लेखिका आई है,
अभी तो उसकी आँखों में
अक्षरों की ओस बची है,
काग़ज़ पर गिरते शब्द
अब भी उसके हृदय के रक्त से भीगे हैं।
वह नहीं जानती मंचों की चालें,
न वक्तव्यों की वैभवपूर्ण भाषा,
वह तो बस जीवन के आँगन से
कुछ अनुभवों की राख समेट लाई है।
उसके शब्दों में लोरी है, आँसू है,
पिता की पीठ, माँ की चुप्पी है,
सपनों की टूटी चूड़ियाँ हैं,
और उन रिश्तों की पीड़ा
जो कभी उसके हिस्से में आए ही नहीं।
परन्तु…
साहित्य की इस राजसभा में
वह सादगी अब सौदा बन गई है।
जिसे वह अभिव्यक्ति समझती थी,
वहाँ तो लोग उसकी चुप्पी नापते हैं।
कोई कहता है —
“तुम्हारी रचनाओं में कोमलता है,”
पर देखता है उसकी देह की रेखाएँ।
कोई कहता है —
“तुममें बहुत सम्भावनाएँ हैं,”
पर गिनता है उसकी उम्र, उसकी रातों का पता।
वह मुस्कराती है, मौन रह जाती है।
क्योंकि उसे सिखाया गया था —
मौन स्त्री का आभूषण है।
पर वह नहीं जानती थी —
कि यही मौन, इस मंडी में उसकी नीलामी बन जाएगा।
अब उसकी कविता को कोई नहीं पढ़ता,
उसकी आँखों की गहराई में
कोई “आलोचना” खोजता है।
उसकी मुस्कान पर विशेषांक बनते हैं,
उसकी चुप्पी पर प्रस्ताव आते हैं।
वह हतप्रभ है —
क्या यही है वह संसार
जहाँ रचना की महत्ता नहीं,
रचनाकार की त्वचा देखी जाती है?
उसने अपनी किताब में
अपना दुःख नहीं लिखा,
अपनी माँ की जली हुई उंगलियाँ लिखीं।
अपने प्रेम की छाँव नहीं लिखी,
अपनी बुआ की टूटी चूड़ियाँ लिखीं।
पर इन सबके बीच
उसकी अपनी चीख सबसे अनसुनी रही।
अब वह थकी नहीं, टूटी नहीं,
वह धीरे-धीरे रचना से
आग की पंक्तियाँ बुनने लगी है।
उसका मौन अब गर्जना बनता जा रहा है।
वह अब कविता नहीं,
कविता की ज़मीन मांगती है।
वह अब भूमिका नहीं,
संपूर्ण ग्रंथ स्वयं बन जाना चाहती है।
हे मंचों के पुजारियों —
अब वह तुम्हारे “संबल” की नहीं,
तुम्हारे संकल्पों की परीक्षा लेगी।
वह अब श्रद्धा नहीं,
स्वर बनेगी —
नारी की वह ज्वाला,
जो शब्दों में नहीं,
आत्मा में जलती है।