शक्ति और, ऐश्वर्य की देवी माता महागौरी
इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी। #सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म का शाक्त सम्प्रदाय के विभिन्न स्मृतियों एवं पुराणों में मतमहागौरी का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है.।नवदुर्गा का अष्टम अवतार माता महागौरी का निवा सस्थान कैलाश , जीवनसाथी भगवान शिव , सभीग्रहों की आराध्या , अस्त्र त्रिशूल ,डमरू ,वर , अभय मुद्रा सवारी वृषभ है । श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः | महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा || महागौरी माता का वर्ण पूर्णतः गौरता की शंख, चंद्र और कुंद के फूल की तरह एवं आयु आठ वर्ष है- ‘अष्टवर्षा भवेद् गौरी माता है । माता गौरी के समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि श्वेत हैं। महागौरी की चार भुजाएँ एवं वाहन वृषभ है। मतागौरी के ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा एवं मुद्रा अत्यंत शांत तथा महागौरी देवताओं की प्रार्थना पर हिमालय की श्रृंखला मे शाकंभरी प्रकट हुई थी।
देवी भागवत के अनुसार माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी। भगवान शिव द्वारा मतापर्वती को आहत भरी बातें सुनाकर देवी आहत होने के कारण माता पार्वती तपस्या में लीन हो जाती हैं। वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती आहत सुनकर माता पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँच कर पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है, उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं।
एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और भगवान शिव इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण के अनुसार “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार,सिंह काफी भूखा रहने के कारण भोजन की तलाश में माता गौरी की तपस्या स्थल पहुंचने के बाद तपस्वी देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु सिंह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए तपस्या स्थल पर बैठ गया।
इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी। इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों हैं। स्मृति ग्रंथों के अनुसार दानव राज दुर्गम के अत्याचारों से संतप्त जब देवता भगवती शाकंभरी की शरण मे आये तब माता ने त्रिलोकी को मुग्ध करने वाले महागौरी रूप का प्रादुर्भाव किया। माता महागौरी आसन लगाकर शिवालिक पर्वत के शिखर पर विराजमान हुई और माता शाकंभरी के नाम से कैलाश पर्वत पर माता शाकम्भरी का मंदिर है ।
देवी शाकंभरी के लिए समर्पित चैत्र , माघ , आषाढ़ एवं आश्विन शुक्ल अष्टमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। देवी गौरी की पूजा का विधान भी पूर्ववत है अर्थात जिस प्रकार सप्तमी तिथि तक आपने मां की पूजा की है । माता महागौरी का ध्यान, स्मरण, पूजन-आराधना भक्तों के लिए सर्वविध कल्याणकारी है। या देवी सर्वभूतेषु माँ गौरी रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और माँ गौरी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। हे माँ, मुझे सुख-समृद्धि प्रदान करें।
माता महागौरी के मंदिरों में उत्तराखंड का रुद्रप्रयाग जिले के गुप्त काशी के सोनप्रयाग के केदारनाथ पथ मंदाकनी नदी के तट पर गौरी कुंड , पोखरी , गढ़वाल का नाइ टिहरी बौराड़ी , गौरीमन्दिर , बिहार का गया जिले के गया स्थित भष्मपहाडी पर मंगलागौरी मंदिर , काशी का पंचगंगा घाट , नेपाल देश का जनकपुर में गौरी मंदिर , लुधियाना के चिमनी रोड़ स्थित शिमलापुरी ,विलासपुर ,छत्तीसगढ़ के रायपुर का अवंति बिहार , तमिलनाडु के कांचीपुरम , उत्तरप्रदेश के काशी , फरीदाबाद में माता महागौरी मंदिर प्रसिध्द है ।