
देहरादून | उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में एक पुल केवल दो किनारों को नहीं जोड़ता, बल्कि हजारों लोगों की आजीविका, आवाजाही और उम्मीदों की जीवन रेखा होता है। लेकिन पिछले पांच वर्षों में राज्य में 37 पुल ढह चुके हैं, जबकि 36 अन्य पुल जर्जर हालत में हैं। हर साल निरीक्षण और मरम्मत पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बावजूद हालात जस के तस बने हुए हैं। सवाल यह है कि आखिर इन पुलों की जिम्मेदारी किसकी है और जवाबदेही तय क्यों नहीं होती?
पुल ढहने की घटनाएं उत्तराखंड के विकास के दावों की हकीकत उजागर करती हैं। कभी निर्माण के दौरान लापरवाही, तो कभी प्राकृतिक आपदाएं इन हादसों का कारण बनती हैं। सबसे अधिक घटनाएं पिथौरागढ़ जिले में सामने आई हैं। वर्तमान में पौड़ी जिले के 16 पुल सबसे खतरनाक स्थिति में बताए जा रहे हैं। लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) के अधिकारी मानते हैं कि स्थिति गंभीर है, लेकिन आधिकारिक आंकड़े देने से कतराते हैं।
करोड़ों रुपये खर्च, लेकिन सुधार नहीं
केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय हर साल सेंट्रल रोड इंफ्रास्ट्रक्चर फंड (सीआरआईएफ) के तहत निरीक्षण और मरम्मत के लिए भारी धनराशि जारी करता है। इसके बावजूद पुलों के टूटने का सिलसिला थम नहीं रहा। सितंबर में ही विभिन्न परियोजनाओं के लिए 453.96 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए, जबकि जून में 720 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आपदा राहत के तहत 1200 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि भी घोषित की थी। राज्य सरकार ने वित्तीय वर्ष 2025–26 के बजट में सड़क और पुलों की सुरक्षा के लिए 1200 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। राज्य में कुल करीब साढ़े तीन हजार पुल हैं। इनमें से 296 पुलों की भार क्षमता और संरचनात्मक मजबूती बढ़ाने के लिए अपग्रेडेशन की योजना बनाई गई है।
हाल ही में कोटद्वार के मालन पुल हादसे में पाया गया कि पुल का कंक्रीट सपोर्ट भारी भार के नीचे दब गया था। विशेषज्ञों का कहना है कि पुलों के सभी हिस्सों का जीवनकाल समान नहीं होता — बीयरिंग बीम जल्दी खराब हो जाते हैं, जबकि स्तंभ अपेक्षाकृत टिकाऊ होते हैं। पुलों को आमतौर पर सौ वर्ष तक चलने के लिए डिजाइन किया जाता है, लेकिन निर्माण के दौरान लापरवाही और कमजोर सपोर्ट उन्हें पहले ही कमजोर बना देते हैं। निरीक्षण प्रक्रिया में भी भारी खामियां हैं। पीडब्ल्यूडी और सीपीडब्ल्यूडी को हर साल मानसून से पहले और बाद में पुलों का विस्तृत सर्वेक्षण करना चाहिए, लेकिन यह प्रक्रिया अक्सर कागजों तक ही सीमित रहती है। भारत में आज भी अधिकांश निरीक्षण मैनुअल या दृश्य स्तर पर ही किए जाते हैं, जबकि ड्रोन, सेंसर या एआई जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग बहुत कम होता है।
विदेशी देशों से सीखने की जरूरत
विदेशों में पुलों के रखरखाव और निरीक्षण के लिए सख्त व्यवस्था है। जापान में हर पांच वर्ष में, अमेरिका और ब्रिटेन में हर दो वर्ष में तथा कनाडा में डेढ़ वर्ष के भीतर पुलों का अनिवार्य निरीक्षण होता है। इन देशों में सेंसर, ड्रोन, और डिजिटल सिमुलेशन तकनीक से सुरक्षा ऑडिट किए जाते हैं। भारत में “इंडियन रोड कांग्रेस” पुलों के डिजाइन के लिए तो जिम्मेदार है, लेकिन सुरक्षा ऑडिट के लिए कोई विशेष संस्था नहीं है। राज्यों को मानसून से पहले-पश्चात जांच की जिम्मेदारी दी गई है, लेकिन अधिकांश पुल राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) के अधीन होने से जवाबदेही स्पष्ट नहीं है।
राज्य के कई पुलों के ढहने की जड़ में अवैध रेत खनन भी है। पुलों के आसपास से रेत निकालने से उनकी नींव कमजोर हो जाती है। रेत के हटने से नदी का बहाव तेज और गहरा हो जाता है, जिससे पुल के खंभे अस्थिर होकर ध्वस्त हो जाते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि रेत एक छिद्रयुक्त पदार्थ है जो पानी के प्रवाह को नियंत्रित करता है। जब यह परत हटा दी जाती है, तो नदी का कटाव बढ़ जाता है और संरचनाएं टूटने लगती हैं।
अदालतों के आदेशों का असर नहीं
नैनीताल उच्च न्यायालय में रेत खनन के खिलाफ दो दर्जन से अधिक जनहित याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। अदालतों के कड़े निर्देशों के बावजूद जमीनी स्तर पर बहुत बदलाव नहीं हुआ। खनन माफिया के खिलाफ आवाज उठाने वाले पर्यावरणविद् डॉ. भरत झुनझुनवाला को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया, जबकि कई अन्य कार्यकर्ताओं को धमकियां मिलीं। यह दर्शाता है कि अवैध खनन के खिलाफ तंत्र कितना कमजोर है।
विशेषज्ञों की राय
अजय चौरसिया, वरिष्ठ वैज्ञानिक, सीबीआरआई:
“पुलों की डिजाइन, सुरक्षा और सामग्री की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। हर पुल की नियमित और वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए। नदी के प्रवाह, मलबे और कटाव को ध्यान में रखकर ही निर्माण किया जाए।”
डॉ. एस.पी. सती, प्रमुख भूविज्ञानी, एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय:
“भारी वर्षा या बादल फटना एक कारण हो सकता है, लेकिन असली जिम्मेदारी मानव गतिविधियों की है। सड़क निर्माण में मलबा नदियों में फेंका जा रहा है और अवैध खनन ने स्थिति को और भयावह बना दिया है।”
 
     
 
                       
                       
                       
                       
                      





