चुनावों की पराकाष्ठा…
ओम प्रकाश उनियाल
लोकतांत्रिक देश में समय-समय पर चुनावी प्रक्रिया चलती ही रहती है। कभी पांच साल बाद तो कभी मध्यावधि और तो और कभी उप-चुनाव भी। चुनावी साल आते ही राजनीतिक दलों व राजनीतिज्ञों के बीच सरगर्मी पैदा हो जाती है। हर दल, हर नेता एवं अपने आप को जबरन नेताओं की श्रेणी में दिखाने वाले छुट्टभइए भी सक्रिय हो जाते हैं।
अपराधी छवि वाले अपने पर लगे कलंक को मिटाने के लिए राजनीति में आने के लिए टिकट की जुुगत में समर्पण भाव से दल के वरिष्ठ व प्रभावशाली नेताओं की सेवा-सुुश्रुशा में जुट जाते हैं। राजनीतिक दलों का एक-एककर चिट्ठा खोला जाए तो कोई भी दल दूध का धुला नहीं मिलेगा। देश में चुनाव लड़ना आसान है।
धनबली, बाहुबली एवं खलबली मचाने वालों को ही दलों के आलाकमान तरजीह देते हैं। क्योंकि, चुनावों में दलों के पास मुद्दे तो होते नहीं। जाति-धर्म, भाई-भतीजावाद, परिवारवाद व वंशवाद को लेकर चुनाव लड़े जा रहे हैं। वैमनस्य फैलाना चुनावी धर्म बनता जा रहा है।
एक तरफ बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती महंगाई, अधूरा विकास जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं तो दूसरी तरफ देश में समानता लाने की बात करने वाले ही जब भ्रष्टाचार के कंठ में डूबे हुए हों तो उनसे भला समानता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। यही कारण है कि गरीब दिन-प्रतिदिन गरीब और अमीर दिन-प्रतिदिन अमीर होता जा रहा है।
चुनाव का मतलब आजादी के इतने समय बाद भी हमारे देश का नागरिक नहीं समझ पाया है। क्योंकि, हमें जो संवैधानिक अधिकार मिले हुए हैं उनका सही उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। राजनीति और राजनीतिज्ञों के पाट के बीच फंसकर देश का मतदाता स्व-विवेक खोता जा रहा है।
¤ प्रकाशन परिचय ¤
From »ओम प्रकाश उनियाललेखक एवं स्वतंत्र पत्रकारAddress »कारगी ग्रांट, देहरादून (उत्तराखण्ड)Publisher »देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड) |
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