
डॉ प्रियंका सौरभ
मेसेंजर की आभासी दुनिया में प्रतिदिन कुछ अनाम आत्माएँ ऐसे उतर आती हैं, मानो मेरे मन की चौखट उनके लिए हमेशा खुली हो। उनके संदेशों का प्रवाह इतना निरंतर और सहज होता है कि लगता है जैसे किसी अदृश्य स्रोत से आशा की कोमल धारा मेरे जीवन में उतरती चली आती हो। उनकी यह विशेषता और भी विचित्र है कि उन्हें उत्तर की कोई आकांक्षा ही नहीं होती। उनके शब्दों में एक ऐसी निस्सीम सकारात्मकता छलकती है, मानो संसार का कोई भी संकट उनकी आशा को टाल न सके। वह समर्पण, वह सरलता, वह एकतरफा स्नेह-प्रवाह किसी अनोखे उत्सव की तरह मन में उतरता है।
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जब मैं मेसेंजर खोलती हूँ तो वहाँ कृत्रिम पुष्पों की रंगीन पंखुड़ियों, शक्कर में डूबे शब्दों और मधुर उपमाओं की सजावट ऐसा दृश्य रच देती है जैसे किसी अनदेखे व्यक्ति ने बिना निमंत्रण मेरे जीवन में उत्सव बिखेर दिया हो। कभी-कभी मन सोचने लगता है—क्या सचमुच कोई अनजाना व्यक्ति इतनी मधुरता, इतना सम्मान, इतनी कोमल भावनाएँ किसी और के लिए संजो सकता है? क्या यह मात्र आभासी दुनिया का भ्रम है, या वास्तव में दुनिया में ऐसी आत्माएँ अब भी बची हैं, जिनके भीतर निस्वार्थ स्नेह का स्रोत बहता है?
विडंबना यह है कि जहाँ अजनबी सहज स्नेह देते चले जाते हैं, वहीं अपने जीवनसाथी के मुख से एक मधुर शब्द भी सुनना कई बार किसी दुर्लभ सौभाग्य जैसा प्रतीत होता है। वहाँ शिकायतों की काँटेदार झाड़ियाँ और उलाहनों की सूखी टहनियाँ ही अधिक पनपती हैं। विवाह जैसे संबंध में जब दो अधूरे मनुष्यों को बाँध दिया जाता है, तो उनसे पूर्णता की अपेक्षा समाज करता है, जबकि भीतर दोनों ही अपनी अपूर्णताओं के बोझ से झुके रहते हैं। इस विरोधाभास में ही आधुनिक जीवन की सबसे मार्मिक सच्चाई छिपी है।
फिर भी, इन अनाम संदेशदाताओं के प्रति मेरे भीतर एक अनकहा आभार जन्म लेता है। यह आभार किसी अपेक्षा या आकर्षण का नहीं, बल्कि इस एहसास का है कि दुनिया में अभी भी कुछ लोग बिना पहचान, बिना स्वार्थ और बिना किसी प्रतिफल की आशा के भी स्नेह-रस बाँटना जानते हैं। फिर भी मेरे भीतर उनके लिए प्रेम, आकर्षण या मोह के कोई भाव नहीं उठते। मेरे अस्तित्व का वह कोना, जहाँ भावनाएँ जन्म लेती हैं, रिक्त और शांत है—जैसे किसी वीतरागी का आकाश।
मेरे परिचितों में एक ऐसा व्यक्ति भी है जो बाहर की दुनिया को हँसी के उत्सव बाँटता फिरता है। उसके सहज हास्य से लोग खिल उठते हैं, पर जैसे ही वह घर लौटता है, उसकी आभा ऐसे झर जाती है मानो वह किसी कठिन और थकाऊ यात्रा से लौट रहा हो। उसे देखते हुए यह चिंता कई बार मन में उठती है कि कहीं ये अनाम संदेश भेजने वाले भी भीतर से उसी तरह रिक्त तो नहीं? कहीं इन मुस्कानों का आभूषण केवल बाहरी आवरण तो नहीं, जो भीतर के गहरे अकेलेपन को ढकने के लिए पहना गया हो?
इन संदेशों की बाढ़ ने मेरे भीतर समाज के बदलते स्वरूप को समझने की बेचैनी जगा दी। स्मृति में कई परिचितों के जीवन-चित्र कौंध उठे—कुछ प्रसन्न, कुछ संघर्षरत, कुछ टूटे हुए, कुछ लड़ते हुए। हर चित्र समाज के बदलते मानस की एक नई व्याख्या था। इस संदर्भ में सबसे पहले मैं उन परिवारों को हृदय से नमन करना चाहती हूँ, जिनके भीतर प्रेम, संयम, धैर्य और परस्पर सम्मान की सूक्ष्म डोर अभी भी बंधी हुई है। ऐसे परिवार किसी शांत नदी की गहराई जैसे होते हैं—ऊपर से भले ही स्थिर दिखाई दें, भीतर वे समाज की स्थिरता और संतुलन का आधार संजोए रखते हैं।
परंतु समाज का दूसरा पहलू अत्यंत जटिल और तीखा है। चालीस-पैंतालीस की उम्र में कदम रखते ही कुछ लोग अपने भीतर “पीड़ित होने” की विचित्र भावना पालने लगते हैं। उन्हें लगता है कि यदि परिवार और जिम्मेदारियाँ न होतीं, तो वे अपनी प्रतिभा से आकाश छू सकते थे। यह मानसिकता धीरे-धीरे दाम्पत्य संबंधों को कुतरने लगती है और विवाह की डोर छिन्न-भिन्न होने लगती है।इसी के समानांतर, कुछ पुरुष अपने घर की नाराजगी, अपने मनोभावों और मनगढ़ंत पीड़ाओं की कहानियाँ बाहर की स्त्रियों से साझा कर लेते हैं। भावनात्मक रूप से संवेदनशील स्त्रियाँ उन शब्दों को सत्य मानकर उलझ जाती हैं। पुरुषों का यह छल उन्हें अपने ही भावों की कैद में धकेल देता है।
आजकल सरायों, कैफे और भोजनालयों के बाहर घटित नाटकीय दृश्य—अंदर पत्नी किसी ‘मित्र’ के साथ और बाहर खड़ा आक्रोशित पति—यह केवल व्यक्तिगत त्रासदियाँ नहीं, बल्कि समाज की विकृत होती मानसिकता का प्रतीक हैं। विश्वास और मर्यादा के स्थान पर असंतोष और विकारों ने कब्जा कर लिया है।कुछ लोग अपने घर की अव्यवस्था से भागकर बाहरी आकर्षणों में सुख ढूँढ़ते हैं। वे मान लेते हैं कि यही वास्तविक जीवन है, यही प्रेम है, यही मुक्ति। पर जब वह मोह भी समाप्त हो जाता है, तो वे फिर किसी नई चमक की तलाश में निकल पड़ते हैं। और इस चक्र में परिवार, संबंध और बच्चों की स्थिरता सबसे अधिक प्रभावित होती है।
इसके परिणामस्वरूप स्त्रियों के भीतर भी प्रतिरोध, प्रतिशोध और आत्म-सिद्धि का भाव प्रबल हो जाता है। इसका सीधा असर परिवारों पर पड़ता है—बच्चों में दिशाहीनता, नशे की प्रवृत्ति, और कम उम्र में अनियंत्रित आकर्षण का उभार इसी टूटन का दुष्परिणाम है। सोशल मीडिया इस स्थिति को सुधारने के बजाय कई बार और बिगाड़ देता है। आज आवश्यकता है कि हम अपने घरों में संवाद, विश्वास, धैर्य और स्नेह की गरिमा को पुनः स्थापित करें। तभी हम एक स्वस्थ, संतुलित और भावनात्मक रूप से स्थिर समाज का निर्माण कर पाएँगे। आगामी पीढ़ियों को टूटे मनों की विरासत नहीं, बल्कि समझ और प्रेम की पूँजी देनी होगी।
प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार
उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)






