लघुकथा : धर्म

लघुकथा : धर्म, और यह क्या…? नेताजी का जुमला चल निकला । जनता पिछले पांच सालों के दर्द को मिनटों में भूल गई और उसने अपने नेता जी का झंडा उठा लिया… ✍🏻 मुकेश कुमार ऋषि वर्मा, फतेहाबाद( आगरा)
चुनाव सिर पर आ गया था। नेता जी बड़ी चिंता में थे । पिछले पांच साल में जनता के लिए कुछ भी विकास कार्य तो किये नहीं थे। स्वयं का घर भरा और अपनों का भरवाया। खूब मन भर रंग-रलियां की। न जाने कितने निर्दोषों पर मुकदमे ठुकवाये।
जनता के बीच अगर वोट मांगने गये तो जनता पक्का जूतों से मारेगी । क्या किया जाये…?
आखिर नेता जी की तीसरी आंख खुल ही गई। तुरंत नेता जी ने अपना जुमला तैयार किया।
‘मेरे प्यारे भाइयों -बहिनों अपना धर्म खतरे में है। अगर विधर्मी इस बार जीत गए तो हमारी बहनों की इज्जत और हम सबकी जान खतरे में पड़ जाएगी।
और यह क्या…? नेताजी का जुमला चल निकला। जनता पिछले पांच सालों के दर्द को मिनटों में भूल गई और उसने अपने नेता जी का झंडा उठा लिया, ताकि धर्म सुरक्षित रहे।
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