
व्यग्र पाण्डे
मेरे गाँव की माटी
ऐसा तुझमें क्या है
मैं जब भी आता तेरे पास
होता एक अनोखा अहसास
मेरे घुटनों का दर्द
रफूचक्कर हो जाता
पैर चलने लगते युवक की भाँति
आँखों को दिखने लगता
बिन चश्मे के
मुरझाए चेहरे पर चमक आ जाती
पूनम के चाँद सी
हाथों की पकड़
मजबूत हो जाती
अब नहीं छूटता लोटा अनायास
जो छूट जाया करता है हर रोज
मेरे गाँव की माटी
ऐसा तुझमें क्या है …
तेरा स्पर्श मुझे
क्यूँ देता हर्ष आज भी
तू उड़ उड़ कर बैठ जाती
जब मेरे सर पर
क्यूँ बुरी नहीं लगती
चिकित्सीय विज्ञान असफल हो जाता
ना जाने एलर्जी कहाँ चली जाती
ना खाँसी आती ना होती जुकाम
हे ललित ललाम
तुझको सलाम
मेरे गाँव की माँटी
ऐसा तुझ में क्या है…
तेरा सानिध्य पाकर
मेरी विलुप्त सी स्मृति में
क्यूँ आने लगते
एक के बाद एक चित्र
चित्रपट की तरह
तेरा कण-कण मुझसे बातें करता
बिन थके बिन रुके
तेरा खिंचाव मुझे आज भी
खींच लाता है
चुम्बक की तरह
वर्षों बीत गए तुझे छोड़ें
फिर भी तेरा संग मुझे क्यूँ भाता है
मेरे गाँव की माटी
ऐसा तुझ में क्या है…
¤ प्रकाशन परिचय ¤
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