साहित्य लहर

कविता : हम ठगे से रह गए

सुनील कुमार माथुर, जोधपुर, राजस्थान

जिन्हें हमने अपना समझा
वे ही पराये निकल गए
हमने उन पर आंख मूंद कर
विश्वास किया लेकिन
वे तो दगाबाज निकले
हमने अपना हर दर्द व दुख सुनाया

लेकिन
उन्होंने दुख दर्द सुनकर भी
हमारी दूसरों के समक्ष हंसी ही उड़ाई
हम ना समझ कुछ भी न समझ पाए
मगर वे हमारी सदैव पीठ पीछे

हंसी ही उड़ाते रहे
हम पगले कुछ समझ पाते
उससे पहले ही वे
हमसे फायदा उठा कर
हमसे दूर हो गए और
हम ठगे से रह गए


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