साहित्य लहर

कविता : अंतरात्म में विवेकानंद

कविता : अंतरात्म में विवेकानंद, ज्ञान ज्योति प्रज्वलित करो और क्रोधाग्नि को शांत करो अस्तित्व स्वयं का जानने को आलस्य छोड़ विश्रांत करो त्याग तपस्या से सब संभव पहले करो फिर मानो अंतरात्म में बसे विवेकानंद उन्हें तुम जानो। धरा बनी है शय्या अपनी, व्योम बना है छत अपना… अम्बेडकर नगर (उप्र) से अजय एहसास की कलम से…

अंधकार को विदा करो
और ज्योतिर्मय हो जाओ
जीत स्वयं की सभी इंद्रियां
जितेंद्रिय कहलाओ
सपनों में ही लीन न होकर
स्वयं को तुम पहचानो
अंतरात्म में बसे विवेकानंद
उन्हें तुम जानो ।

ज्ञान ज्योति प्रज्वलित करो
और क्रोधाग्नि को शांत करो
अस्तित्व स्वयं का जानने को
आलस्य छोड़ विश्रांत करो
त्याग तपस्या से सब संभव
पहले करो फिर मानो
अंतरात्म में बसे विवेकानंद
उन्हें तुम जानो ।

धरा बनी है शय्या अपनी
व्योम बना है छत अपना
आत्म हुआ जब जागृत अपना
सारा जग लगता सपना
जागृत कर अपनी आत्मा को
दिव्य नेत्र को तानो
अंतरात्म में बसे विवेकानंद
उन्हें तुम जानो ।

यश, लोभ, वासना से अतृप्त
तुम सत्य समझ ना पाओगे
तृष्णा की गहरी सरिता में
बहकर गोते खाओगे
स्पंदित आकाश चंद्रमा शांत
सूर्य तेजोमय साक्षी मानो
अंतरात्म में बसे विवेकानंद
उन्हें तुम जानो हो ।

हो अध्यात्म या सांसारिक
जीवन संघर्ष यहां है
कस्तूरी है स्वयं के भीतर
ढूंढते रहते कहां है
सांसारिक आनंद ये
क्षणभंगुर ही इसको मानो
अंतरात्म में बसे विवेकानंद
उन्हें तुम जानो ।

जिज्ञासा का समाधान
संचार आत्मिकता का हो
संसार बने सामाजिक
नैतिक और आध्यात्मिकता हो
बनकर क्रांति दूत वैचारिक
समता भाव को मानो
अंतरात्म में बसे विवेकानंद
उन्हें तुम जानो ।

भाव विश्व बंधुत्व लेकर
भ्रांति मिटाने निकल पड़ो
धर्म जाति और ग्रंथ की खातिर
तुम आपस में नहीं लड़ो
कल्याण विश्व का कर प्रयास
तुम स्वयं राष्ट्र का मान बनो
अंतरात्म में बसे विवेकानंद
उन्हें तुम जानो।

कविता : बचपन के दिन


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कविता : अंतरात्म में विवेकानंद, ज्ञान ज्योति प्रज्वलित करो और क्रोधाग्नि को शांत करो अस्तित्व स्वयं का जानने को आलस्य छोड़ विश्रांत करो त्याग तपस्या से सब संभव पहले करो फिर मानो अंतरात्म में बसे विवेकानंद उन्हें तुम जानो। धरा बनी है शय्या अपनी, व्योम बना है छत अपना... अम्बेडकर नगर (उप्र) से अजय एहसास की कलम से...

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