कविता : उजियारा
कविता : उजियारा, हम उसी वक्त से अब तक रहे समाये यारों की यह बस्ती आज खौफ में क्यों डूबी रात यहां जब घिरती हवा सिहरती जज्बातों से आकर उस आहट से तुम भी फिरती… राजीव कुमार झा की कलम से…
तुमने
सबके जज्बातों को
जितना समझा
उसके कद्रदान
अब कितने सारे
जो लोग यहां कल
बनकर आये
सबके जीवन में
हम उसी वक्त से
अब तक रहे समाये
यारों की यह बस्ती
आज खौफ में
क्यों डूबी
रात यहां जब घिरती
हवा सिहरती
जज्बातों से आकर
उस आहट से
तुम भी फिरती
क्या बनी रहोगी
काफी दिन अकेली
इस सन्नाटे के बीच
हवा आई
सुबह की खाई
यहां रोशनी की
लकीरें
घोंसलों में तिनको की
छाया
इसके बीच गुजरती
तुम दुपहरी सी
यहां अकेली तब से
बैठी
नदी शाम में
काफी दूर किसी
अंधेरे में
बहती
सुबह की बेला में
सबकुछ अब
चहलपहल से
चारों ओर घिरा हुआ
यह अंतर्मन
रात – दिन का
बेहद पावन एक बना
तन
सुंदर जीवन का
कोमल उजियारा
जबरदस्ती बने थे संबंध, युवक फरार और नाबालिग ने दिया बच्चे को जन्म
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