कविता : तुड़का…
तुड़का… काफलू की रस्याण, गिच्च मा लंदीन पाणी। झ्वलि-झुंगरु, बाड़ी-फाणू, मसप्वणी, दाल-भाता की सपोड़ा-सपोड़, कन भलु लगद स्वाद। कंडली कू साग, ढबड़ी अर चूना की रुटी, घी अर नौणी की गुंदकी, रुटी पर घूसी। #ओम प्रकाश उनियाल
कखड़ी-गुदड़ी,
फौंक्यूं-फौंक्यूं लपलपाणी
धुरपली मा बैठी खीरै दाणी
खित-खित हैंसणी।
हिंसला-किनग्वड़ा,
बेडू-तिमला,
काफलू की रस्याण,
गिच्च मा लंदीन पाणी।
झ्वलि-झुंगरु,
बाड़ी-फाणू, मसप्वणी
दाल-भाता की सपोड़ा-सपोड़
कन भलु लगद स्वाद।
कंडली कू साग,
ढबड़ी अर चूना की रुटी
घी अर नौणी की गुंदकी
रुटी पर घूसी।
प्याजा की दाणी,
थच थींची,
पिस्यूं लूण बुरकी
रुटी दगड़ ठुंगार खैकी।
गुड़ा की डलखी,
च्या क् दगड़ गटकी
भूली गीन सबि
प्रदेश अैकी।
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