
डॉ. प्रियंका सौरभ
सड़क, तुम अब आई हो गाँव,
जब सारा गाँव शहर जा चुका है।
जिन गलियों में बचपन की चीखें गूँजती थीं,
अब वहाँ सन्नाटा बैठा है।
खेत सूने हैं, मेड़ों पर बस घास उगी है,
न अँगेठी की आँच है, न चूल्हे की गंध।
बुज़ुर्ग अब भी चौपाल पर बैठे हैं,
पर सुनने वाला कोई नहीं बचा।
तुम्हारे डामर पर अब कौन चलेगा?
यहाँ अब न मेले लगते हैं,
न बारातें निकलती हैं।
बस कभी-कभी डाकिया आता है,
और लौट जाता है बिना किसी ख़त के।
कभी तुम आतीं तो गाँव रुक जाता,
युवाओं के सपनों को पंख लग जाते,
मिट्टी की खुशबू शहर तक जाती।
पर अब जब तुम आई हो सड़क,
तो मिट्टी की महक भी थक चुकी है।
सड़क, तुम अब आई हो गाँव,
जब गाँव का दिल शहर बस चुका है।
अब तुम्हारे दोनों छोरों पर
सिर्फ़ “वापसी की प्रतीक्षा” बाकी है।
— डॉ. प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर, पॉलिटिकल साइंस
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार
उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)









