कविता : चढ़ावा

कविता : चढ़ावा… वो जो बेटे को ऊंची अफ़सर की कुर्सी पर बैठने के जागते हुए सपने देखता था, वो जिसने अपनी हर ख़्वाहिश मार कर खूब लगन से बेटे को इस लायक बनाया कि वो अफ़सर की कुर्सी पर बैठ सके… ✍🏻 प्रेम बजाज, जगाधरी (यमुनानगर)
वो जो गली-गली जाकर कूड़ा बीनता था,
वो जो खुद रह कर भूखा बेटे का पेट भरता था,
वो जो खुद फटे कपड़ो में रहता,बेटे के लिए नई जीन्स-शर्ट लाया करता था,
वो जो खुद था अनपढ़ भले मगर बेटे को बड़े अंग्रेजी मीडियम स्कूल मे पढ़ाने के लिए दिन-रात मेहनत करता था,
वो जो बेटे को ऊंची अफ़सर की कुर्सी पर बैठने के जागते हुए सपने देखता था,
वो जिसने अपनी हर ख़्वाहिश मार कर खूब लगन से बेटे को इस लायक बनाया कि वो अफ़सर की कुर्सी पर बैठ सके,
वो जिसका बेटा पूरे जिले में प्रथम आया था, मगर अच्छी नौकरी के लिए रुपयों का चढ़ावा चढ़ाना था,
उसे इस बात का न पता था, वरना रात में जो चार-छह घण्टे आराम करता था,
वो भी छोड़कर पैसों के इंतजाम के लिए और मेहनत कर लेता, क्या करता?
अब लगा रहा इधर-उधर चक्कर कुछ जुगाड़ लगाने को,
वो आज पड़ा है मंत्री की गली में लावारिस लाश बन कर,
क्योंकि आया था वो मंत्री के पास गुहार लगाने, कि उसका प्रथम आया बेटा भी आज उसकी तरह गलियों में से कूड़ा बीन रहा है,
और एक 40% पे पास होने वाला, आफिसर का रिश्तेदार मेनेजर की कुर्सी पर बैठा है,
कौनखबर करेगा उसके बेटे को, उस गरीब के पास तो कोई मोबाइल भी नहीं,
जानता उसे कोई वैसे नहीं, ले जाएगा कोई रेहड़ी वाला उसे लावारिस समझ कर,
वो जागते हुए सपने देखते-देखते ही सदा के लिए सो गया,
उसका बेटा भी उसी की तरह से गलियों के कूड़े-कचरे में खो गया।
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