कविता : ऐ थाना-ए-गुमशुदा
कविता : ऐ थाना-ए-गुमशुदा, ऐ थाना-ए-गुमशुदा जरा लिख तहरीर मेरी, स्वप्न उलझे हैं ख्यालों के कई फंदे में, उतरे हैं मुक़म्मलफरामोशी के धंधे में, सुनकर यकीन न कर पाया कोई, ऐसी फरामोश निकली ताबीर मेरी, ऐ थाना-ए-गुमशुदा जरा लिख तहरीर मेरी. # सिद्धार्थ गोरखपुरी
ऐ थाना-ए-गुमशुदा जरा लिख तहरीर मेरी
खो गया हैं सुकून और अच्छी वाली तक़दीर मेरी
स्याह रातों में मैं होता हूं खुद के हवाले
बेजान से शबिस्तान में हर चाह टाले
ख्वाब बिखरे हैं रातों में क़त्ल होकर
अरे यही तो थे बस जागीर मेरी
ऐ थाना-ए-गुमशुदा जरा लिख तहरीर मेरी
गम-ए-जिंदगी आहिस्ते से रुला जाती है
घूँट-घूँट कुछ अश्कों के पिला जाती है
क्या था…. क्या हूँ….. क्या हूँगा मैं
बदल गयी हैं अब तो तासीर मेरी
ऐ थाना-ए-गुमशुदा जरा लिख तहरीर मेरी
स्वप्न उलझे हैं ख्यालों के कई फंदे में
उतरे हैं मुक़म्मलफरामोशी के धंधे में
सुनकर यकीन न कर पाया कोई
ऐसी फरामोश निकली ताबीर मेरी
ऐ थाना-ए-गुमशुदा जरा लिख तहरीर मेरी
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